Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

Path Ke Davedar (Hindi)
Path Ke Davedar (Hindi)
Path Ke Davedar (Hindi)
Ebook506 pages4 hours

Path Ke Davedar (Hindi)

Rating: 5 out of 5 stars

5/5

()

Read preview

About this ebook

अपूर्व के मित्र मजाक करते, ''तुमने एम. एस-सी. पास कर लिया, लेकिन तुम्हारे सिर पर इतनी लम्बी चोटी है। क्या चोटी के द्वारा दिमाग में बिजली की तरंगें आती जाती रहती हैं?''

अपूर्व उत्तर देता, ''एम. एस-सी. की किताबों में चोटी के विरुध्द तो कुछ लिखा नहीं मिलता। फिर बिजली की तरंगों के संचार के इतिहास का तो अभी आरम्भ ही नहीं हुआ है। विश्वास न हो तो एम. एस-सी. पढ़ने वालों से पूछकर देख लो।''

मित्र कहते, ''तुम्हारे साथ तर्क करना बेकार है।''

अपूर्व हंसकर कहता, ''यह बात सच है, फिर भी तुम्हें अकल नहीं आती।''

अपूर्व सिर पर चोटी रखे, कॉलेज में छात्रवृत्ति और मेडल प्राप्त करके परीक्षाएं भी पास करता रहा और घर में एकादशी आदि व्रत और संध्या-पूजा आदि नित्य-कर्म भी करता रहा। खेल के मैदानों में फुटबाल, किक्रेट, हॉकी आदि खेलने में उसको जितना उत्साह था प्रात:काल मां के साथ गंगा स्नान करने में भी उससे कुछ कम नहीं था। उसकी संध्या-पूजा देखकर भौजाइयां भी मजाक करतीं, बबुआ जी पढ़ाई-लिखाई तो समाप्त हुई, अब चिमटा, कमंडल लेकर संन्यासी हो जाओ। तुम तो विधवा ब्राह्मणी से भी आगे बढ़े जा रहे हो।''

अपूर्व हंसकर कहता, ''आगे बढ़ जाना आसान नहीं है भाभी! माता जी के पास कोई बेटी नहीं है। उनकी उम्र भी काफी हो चुकी है। अगर बीमार पड़ जाएंगी तो पवित्र भोजन बनाकर तो खिला सकूंगा। रही चिमटा, कमंडल की बात, सो वह तो कहीं गया नहीं?''

अपूर्व मां के पास जाकर कहता, ''मां! यह तुम्हारा अन्याय है। भाई जो चाहें करें लेकिन भाभियां तो मुर्गा नहीं खातीं। क्या तुम हमेशा अपने हाथ से ही भोजन बनाकर खाओगी?''

मां कहती, ''एक जून एक मुट्ठी चावल उबाल लेने में मुझे कोई तकलीफ नहीं होती। और जब हाथ-पांव काम नहीं करेंगे तब तक मेरी बहू घर में आ जाएगी।''

अपूर्व कहता, ''तो फिर एक ब्राह्मण पंडित के घर से बहू, मंगवा क्यों नहीं देतीं? उसे खिलाने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है-लेकिन तुम्हारा कष्ट देखकर सोचता हूं कि चलो भाइयों के सिर पर भार बनकर रह लूंगा।''

मां कहती, ''ऐसी बात मत कह रे अपूर्व, एक बहू क्या, तू चाहे तो घर भर को बिठाकर खिला सकता है।''

''कहती क्या हो मां? तुम सोचती हो कि भारतवर्ष में तुम्हारे पुत्र जैसा और कोई है ही नहीं?''

और यह कहकर वह तेजी से चला जाता।

अपूर्व के विवाह के लिए लोग बड़े भाई विनोद को आकर परेशान करते। विनोद ने जाकर मां से कहा, ''मां, कौन-सी निष्ठावान जप-तपवाली लड़की है, उसके साथ अपने बेटे का ब्याह करके किस्सा खत्म करो। नहीं तो मुझे घर छोड़कर भाग जाना पड़ेगा। बड़ा होने के कारण लोग समझते हैं कि घर का बड़ा-बूढ़ा मैं ही हूं।''

पुत्र के इन वाक्यों से करुणामयी अधीर हो उठी। लेकिन बिना विचलित हुए मधुर स्वर में बोली, ''लोग ठीक ही समझते हैं बेटा। उनके बाद तुम ही तो घर के मालिक हो। लेकिन अपूर्व के संबंध में किसी को वचन मत देना। मुझे रूप और धन की आवश्यकता नहीं है। मैं स्वयं देख-सुनकर तय करूंगी।''

Languageहिन्दी
Release dateJun 26, 2014
ISBN9781311464293
Path Ke Davedar (Hindi)

Read more from Sarat Chandra Chattopadhyay

Related to Path Ke Davedar (Hindi)

Related ebooks

Reviews for Path Ke Davedar (Hindi)

Rating: 5 out of 5 stars
5/5

1 rating0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    Path Ke Davedar (Hindi) - Sarat Chandra Chattopadhyay

    पथ के दावेदार

    एक

    अपूर्व के मित्र मजाक करते, ''तुमने एम. एस-सी. पास कर लिया, लेकिन तुम्हारे सिर पर इतनी लम्बी चोटी है। क्या चोटी के द्वारा दिमाग में बिजली की तरंगें आती जाती रहती हैं?''

    अपूर्व उत्तर देता, ''एम. एस-सी. की किताबों में चोटी के विरुध्द तो कुछ लिखा नहीं मिलता। फिर बिजली की तरंगों के संचार के इतिहास का तो अभी आरम्भ ही नहीं हुआ है। विश्वास न हो तो एम. एस-सी. पढ़ने वालों से पूछकर देख लो।''

    मित्र कहते, ''तुम्हारे साथ तर्क करना बेकार है।''

    अपूर्व हंसकर कहता, ''यह बात सच है, फिर भी तुम्हें अकल नहीं आती।''

    अपूर्व सिर पर चोटी रखे, कॉलेज में छात्रवृत्ति और मेडल प्राप्त करके परीक्षाएं भी पास करता रहा और घर में एकादशी आदि व्रत और संध्या-पूजा आदि नित्य-कर्म भी करता रहा। खेल के मैदानों में फुटबाल, किक्रेट, हॉकी आदि खेलने में उसको जितना उत्साह था प्रात:काल मां के साथ गंगा स्नान करने में भी उससे कुछ कम नहीं था। उसकी संध्या-पूजा देखकर भौजाइयां भी मजाक करतीं, बबुआ जी पढ़ाई-लिखाई तो समाप्त हुई, अब चिमटा, कमंडल लेकर संन्यासी हो जाओ। तुम तो विधवा ब्राह्मणी से भी आगे बढ़े जा रहे हो।''

    अपूर्व हंसकर कहता, ''आगे बढ़ जाना आसान नहीं है भाभी! माता जी के पास कोई बेटी नहीं है। उनकी उम्र भी काफी हो चुकी है। अगर बीमार पड़ जाएंगी तो पवित्र भोजन बनाकर तो खिला सकूंगा। रही चिमटा, कमंडल की बात, सो वह तो कहीं गया नहीं?''

    अपूर्व मां के पास जाकर कहता, ''मां! यह तुम्हारा अन्याय है। भाई जो चाहें करें लेकिन भाभियां तो मुर्गा नहीं खातीं। क्या तुम हमेशा अपने हाथ से ही भोजन बनाकर खाओगी?''

    मां कहती, ''एक जून एक मुट्ठी चावल उबाल लेने में मुझे कोई तकलीफ नहीं होती। और जब हाथ-पांव काम नहीं करेंगे तब तक मेरी बहू घर में आ जाएगी।''

    अपूर्व कहता, ''तो फिर एक ब्राह्मण पंडित के घर से बहू, मंगवा क्यों नहीं देतीं? उसे खिलाने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है-लेकिन तुम्हारा कष्ट देखकर सोचता हूं कि चलो भाइयों के सिर पर भार बनकर रह लूंगा।''

    मां कहती, ''ऐसी बात मत कह रे अपूर्व, एक बहू क्या, तू चाहे तो घर भर को बिठाकर खिला सकता है।''

    ''कहती क्या हो मां? तुम सोचती हो कि भारतवर्ष में तुम्हारे पुत्र जैसा और कोई है ही नहीं?''

    और यह कहकर वह तेजी से चला जाता।

    अपूर्व के विवाह के लिए लोग बड़े भाई विनोद को आकर परेशान करते। विनोद ने जाकर मां से कहा, ''मां, कौन-सी निष्ठावान जप-तपवाली लड़की है, उसके साथ अपने बेटे का ब्याह करके किस्सा खत्म करो। नहीं तो मुझे घर छोड़कर भाग जाना पड़ेगा। बड़ा होने के कारण लोग समझते हैं कि घर का बड़ा-बूढ़ा मैं ही हूं।''

    पुत्र के इन वाक्यों से करुणामयी अधीर हो उठी। लेकिन बिना विचलित हुए मधुर स्वर में बोली, ''लोग ठीक ही समझते हैं बेटा। उनके बाद तुम ही तो घर के मालिक हो। लेकिन अपूर्व के संबंध में किसी को वचन मत देना। मुझे रूप और धन की आवश्यकता नहीं है। मैं स्वयं देख-सुनकर तय करूंगी।''

    ''अच्छी बात है मां। लेकिन जो कुछ करो, दया करके जल्दी कर डालो,'' कहकर विनोद रूठकर चला गया।

    स्नान घाट पर एक अत्यंत सुलक्षणा कन्या पर कई दिन से करुणामयी की नजर पड़ रही थी। वह अपनी मां के साथ गंगा-स्नान करने आती थी। उन्हीं की जाति की है, गुप्त रूप से वह पता लगा चुकी थीं। उनकी इच्छा थी कि अगर तय हो जाए तो आगामी बैसाख में ही विवाह कर डालें।

    तभी अपूर्व ने आकर एक अच्छी नौकरी की सूचना दी।

    मां प्रसन्न होकर बोली, ''अभी उस दिन तो पास हुआ है। इसी बीच तुझे नौकरी किसने दे डाली?''

    अपूर्व हंसकर बोला, ''जिसे जरूरत थी।'' यह कहकर उसने सारी घटना विस्तार से बताई कि उसके प्रिंसिपल साहब ने ही उसके लिए यह नौकरी ठीक की है। वोथा कम्पनी ने बर्मा के रंगून शहर में एक नया कार्यालय खोला है। वह किसी सुशिक्षित और ईमानदार बंगाली युवक को उस कार्यालय का सारा उत्तरदायित्व देकर भेजना चाहती है। रहने के लिए मकान और चार-सौ रुपए माहवार वेतन मिलेगा और छ: महीने के बाद वेतन में दौ सौ रुपए की वृध्दि कर दी जाएगी।''

    बर्मा का नाम सुनते ही मां का मुंह सूख गया, बोली, ''पागल तो नहीं हो गया? तुझे वहां भेजूंगी? मुझे ऐसे रुपए की जरूरत नहीं है।''

    अपूर्व भयभीत होकर बोला, ''तुम्हें न सही, मुझे तो है। तुम्हारी आज्ञा से भीख मांगकर भी जिंदगी बिता सकता हूं लेकिन जीवन भर ऐसा सुयोग फिर नहीं मिलेगा। तुम्हारे बेटे के न जाने से वोथा कम्पनी का काम रुकेगा नहीं। लेकिन प्रिंसिपल साहब मेरी ओर से वचन दे चुके हैं। उनकी लज्जा की सीमा न रहेगी। फिर घर की हालत तो तुमसे छिपी नहीं है मां।''

    ''लेकिन सुनती हूं वह म्लेच्छों का देश है।''

    अपूर्व ने कहा, ''किसी ने झूठ-मूठ कह दिया है। तुम्हारा देश तो म्लेच्छों का देश नहीं है। फिर भी जो मनमानी करना चाहते हैं उन्हें कोई रोक नहीं सकता।''

    ''मैंने तो इसी बैसाख में तेरा विवाह करने का निश्चय किया है।''

    अपूर्व बोला, ''एकदम निश्चय? अच्छी बात है। एक दो महीने बाद जब तुम बुलाओगी, मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करने आ जाऊंगा।''

    करुणामयी बाहर से देखने में पुराने विचारों की अवश्य थी लेकिन बहुत ही बुध्दिमती थी। कुछ देर मौन रहकर बोली, ''जब जाना ही है तो अपने भाइयों की सहमति भी ले लेना।''

    यह कुल गोकुल दीधी के सुप्रसिध्द बंद्योपाध्याय घराने में से है। वंश-परम्परा से ही वह लोग अत्यंत आचार परायण कहलाते हैं। बचपन से जो संस्कार उनके मन में जग गए थे-पति, पुत्रों ने जहां तक लांछित और अपमानित करना था किया, लेकिन अपूर्व के कारण वह सब कुछ सहन करती हुई इस घर में रह रही थी। आज वह भी उनकी आंखों से दूर अनजाने देश जा रहा है। इस बात को सोच-सोचकर उनके भय की सीमा नहीं रही। बोली, ''अपूर्व मैं जितने दिन जीवित रहूं, मुझे दु:ख मत देना बेटे,'' कहते-कहते उनकी आंखों से दो बूंद आंसू टपक पड़े।

    अपूर्व की आंखें भी गीली हो उठीं। बोला, ''मां, आज तुम इस लोक में हो लेकिन एक दिन जब स्वर्गवास की पुकार आएगी, उस दिन तुम्हें अपने अपूर्व को छोड़कर वहां जाना होगा। मेरे जाने के बाद तुम यहां बैठकर मेरे लिए आंसू मत बहाती रहना'', इतना कहकर वह दूसरी ओर चला गया।

    उस दिन सांझ के समय, करुणामयी अपनी नियमित संध्या-पूजा आदि कार्यों में मन नहीं लगा सकीं। अपने बड़े बेटे के कमरे के दरवाजे पर चली गईं। विनोद कचहरी से लौटकर जलपान करने के बाद क्लब जाने की तैयारी कर रहा था। मां को देखकर एकदम चौंक पड़ा।

    करुणामयी ने कहा, ''एक बात पूछने आई हूं, विनू!''

    ''कौन-सी बात मां?''

    यहां आने से पहले मां अपनी आंखों के आंसू अच्छी तरह पोंछकर आई थी, लेकिन उनका रुंधा गला छिपा न रह सका। सारी घटना और अपूर्व के मासिक वेतन के बारे में बताने के बाद उन्होंने चिंतित स्वर में पूछा, ''यही सोच रही हूं बेटा कि इन रुपयों के लोभ में उसे भेजूं या नहीं।''

    विनोद धीरज खो बैठा। शुष्क स्वर में बोला, ''मां, तुम्हारे अपूर्व जैसा लड़का भारतवर्ष में और दूसरा नहीं है। इस बात को हम सभी मानते हैं। लेकिन इस धरती पर रहकर इस बात को माने बिना भी नहीं रह सकते कि पहले चार सौ रुपए, फिर छ: महीने में दो सौ रुपए और-वह इस लड़के से बहुत बड़ा है।''

    मां दु:खी होकर बोली, ''लेकिन सुनती हूं कि वह तो एकदम म्लेच्छों का देश है।''

    विनोद ने कहा, ''तुम्हारा जानना-सुनना ही तो सारे संसार का अन्तिम सत्य नहीं हो सकता।''

    पुत्र के अंतिम वाक्य से मां अत्यंत दु:खी होकर बोली, ''बेटा! जब से समझदार हुई, इसी एक ही बात को सुन-सुनकर भी जब मुझे चेत नहीं हुआ तो इस उम्र में और शिक्षा मत दो। मैं यह जानने नहीं आई कि अपूर्व का मूल्य कितने रुपए है। मैं केवल यह जानने आई थी कि उसे इतनी दूर भेजना उचित होगा या नहीं।''

    विनोद ने दाएं हाथ से मां के चरणस्पर्श करके कहा, ''मां, मैंने तुम्हें दु:खी करने के लिए यह नहीं कहा। यह सच है कि पिता जी के साथ ही हम लोगों का मेल बैठता था और उनसे हम लोगों ने सीखा है कि घर-गृहस्थी के लिए रुपया होना कितना आवश्यक है। इस हैट कोट को पहनकर विनू इतना बड़ा साहब नहीं बन गया कि छोटे भाई को खिलाने के डर से उचित-अनुचित का विचार न कर सके। लेकिन फिर भी कहता हूं कि उसे जाने दो। देश में जैसी हवा बह रही है इससे वह कुछ दिनों के लिए देश छोड़कर, कहीं दूसरी जगह जाकर काम में लग जाए तो इसमें उसका भी हित होगा और परिवार की रक्षा भी हो जाएगी। तुम तो जानती हो मां, उस स्वदेशी आंदोलन के समय कितना छोटा था। फिर भी उसी के प्रताप से पिता जी की नौकरी जाने की नौबत आ गई थी।''

    करुणामयी बोली, ''नहीं, नहीं, अब अपूर्व वह सब नहीं कर सकता।''

    विनोद बोला, ''मां, सभी देशों में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनकी जाति ही अलग होती है। अपूर्व उसी जाति का है। देश की मिट्टी ही इसके शरीर का मांस है, देश का जल ही इनकी धमनियों का रक्त है। देश के विषय में इनका विश्वास कभी मत करना मां, नहीं तो धोखा खाओगी। बल्कि अपने इस म्लेच्छ विनू को, अपने उस चोटीधारी, गीता पढ़े एम. एस-सी. पास अपूर्व से अधिक ही अपना समझना।''

    पुत्र की इन बातों पर मां ने विश्वास तो नहीं किया लेकिन मन-ही-मन शंकित हो उठी। देश के पश्चिमी क्षितिज पर जो भयानक मेघ के लक्षण प्रकट हुए हैं, उसे वह जानती थी। याद आया कि उस समय तो अपूर्व के पिता जीवित थे, लेकिन अब नहीं हैं।

    विनोद ने मां के मन की बात जान ली। लेकिन क्लब जाने की जल्दी में बोला, ''अच्छा मां, वह कल ही तो जा नहीं रहा। सब लोग बैठकर जो निश्चय करेंगे, कर लेंगे,'' कहकर तेजी से बाहर निकल गया।

    अपने ब्र्राह्मणत्व की बड़ी सतर्कता से रक्षा करते हुए अपूर्व एक जलयान द्वारा रंगून के घाट पर पहुंच गया। वोथा कम्पनी के एक दरबान और एक मद्रासी कर्मचारी ने अपने इस नए मैनेजर का स्वागत किया। तीस रुपए महीने का एक कमरा ऑफिस के खर्चे से यथासम्भव सजा हुआ तैयार है, यह समाचार देने में उन लोगों ने देर नहीं की।

    समुद्र-यात्रा की झंझटों के बाद वह खूब हाथ-पैर फैलाकर सोना चाहता था। ब्राह्मण साथ था। घर में अत्यंत असुविधा होते हुए भी इस भरोसे के आदमी को साथ भेजकर मां को बहुत कुछ तसल्ली मिल गई थी। केवल ब्राह्मण रसोइया ही नहीं बल्कि भोजन बनाने के लिए कुछ चावल, दाल, घी, तेल पिसा हुआ मसाला यहां तक कि आलू, परवल तक वह साथ देना नहीं भूली थीं।

    गाड़ी आ जाने पर मद्रासी कर्मचारी तो चले गए लेकिन रास्ता दिखाने के लिए दरबान साथ चल दिया। दस मिनट में ही गाड़ी जब मकान के सामने पहुंचकर रुकी तो तीस रुपए किराए के मकान को देखकर अपूर्व हतबुध्दि-सा खड़ा रह गया।

    मकान बहुत ही भद्दा है। छत नहीं है। सदर दरवाजा नहीं है। आंगन समझो या जो कुछ, इस आने-जाने के रास्ते के अलावा और कहीं तनिक भी स्थान नहीं है। एक संकरी काठ की सीढ़ी, रास्ते के छोर से आरम्भ होकर सीधी तीसरी मंजिल पर चली गई है। इस पर चढ़ने-उतरने में कहीं अचानक पैर फिसल जाए तो पहले पत्थर के बने राजपथ पर फिर अस्पताल में और फिर तीसरी स्थिति को न सोचना अच्छा है। नया आदमी है इसलिए हर कदम बड़ी सावधानी से रखते हुए दरबान के पीछे-पीछे चलने लगा। दरबान ने ऊपर चढ़ने के बाद दाईं ओर में दो मंजिले के एक दरवाजे को खोलकर बताया।

    ''साहब, यही आपके रहने का कमरा है।''

    दाईं ओर इशारा करके अपूर्व ने पूछा, ''इसमें कौन रहता है?''

    दरबान बोला, ''एक चीनी साहब हैं।''

    अपूर्व ने पूछा, ''ऊपर तिमंजिले पर कौन रहता है?''

    दरबान ने कहा, ''एक काले-काले साहब हैं।''

    कमरें में कदम रखते ही अपूर्व का मन बहुत ही खिन्न हो उठा। लकड़ी के तख्ते लगाकर एक-दूसरे की बगल में छोटी-बड़ी तीन कोठरियां बनी हुई हैं। इस मकान की सारी चीजें लकड़ी की हैं। दीवारें, फर्श, छत और सीढ़ी-सभी लकड़ी की हैं। आग की याद आते ही संदेह होता है कि इतना बड़ा और सर्वांग सुंदर लाक्षागृह तो सम्भव है दुर्योधन भी अपने पांडव भाइयों के लिए न बनवा सका होगा। इसी मकान में इष्ट-मित्र, आत्मीय-स्वजनों, मां और भाभियों आदि को छोड़कर रहना पड़ेगा। अपने को संभालकर, थोड़ी देर इधर-उधर घूमकर हर चीज को देखकर तसल्ली हुई कि नल में अभी तक पानी है। स्नान और भोजन दोनों ही हो सकते हैं। अपूर्व ने रसोइए से कहा, ''महाराज, मां ने तो सभी चीजें साथ भेजी हैं। नहाकर कुछ बना लो। तब तक मैं दरबान के साथ सामान ठीक कर लूं।''

    रसोई में कोयला मौजूद था। लेकिन चूल्हे में कालिख लगी थी। पता नहीं इसमें पहले कौन रहता था और क्या पकाया था? यह सोचकर उसे बड़ी घृणा हुई। महाराज से बोला, ''एक उठाने वाला दम चूल्हा होता तो बाहर वाले कमरे में बैठकर कुछ दाल-चावल बना लिया जाता, लेकिन कौन जाने, इस देश में मिलेगा या नहीं।''

    दरबान बोला, ''पैसे दीजिए, अभी दस मिनट में ले आता हूं।''

    वह रुपया लेकर चला गया।

    तिवारी रसोई बनाने की व्यवस्था करने लगा और अपूर्व कमरा सजाने में लग गया। काठ के आले पर कपड़े सजाकर रख दिए। बिस्तर खोलकर चारपाई पर बिछा दिया। एक नया टेबल क्लाथ मेज पर बिछाकर उस पर लिखने का सामान और कुछ पुस्तकें रख दी। उत्तर की ओर खुली खिड़की के दोनों पल्लों को अच्छी तरह खोलकर उसके दोनों कोनों में कागज ठूंसकर सोने वाले कमरे को सुंदर बनाकर बिस्तर पर लेटकर सुख की सांस ली।

    दरबान ने लोहे का चूल्हा ला दिया। तभी याद आया, मां ने सिर की सौगंध देकर पहुंचते ही तार करने को कहा था। इसलिए दरबान को साथ लेकर चटपट बाहर निकल गया। महाराज से कहता गया कि एक घंटे पहले ही लौट आऊंगा।

    आज किसी ईसाई त्यौहार के उपलक्ष में छुट्टी थी। अपूर्व ने देखा, यह गली देशी-विदेशी साहब-मेमों का मुहल्ला है। यहां के प्रत्येक घर में विलायती उत्सव का कुछ-न-कुछ चिद्द अवश्य दिखाई दे रहा है। अपूर्व ने पूछा, ''दरबान जी! सुना है, यहा बंगाली भी तो बहुत हैं। वह किस मुहल्ले में रहते हैं?''

    उसने बताया कि यहां मुहल्ले जैसी कोई व्यवस्था नहीं है। जिसकी जहां इच्छा होती है, वहीं रहता है। लेकिन अफसर लोग इसी गली को पसंद करते हैं। अपूर्व भी अफसर था। कट्टर हिंदू होते हुए भी किसी धर्म के विरुध्द भावना नहीं थी। फिर भी स्वयं को ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं, भीतर-बाहर, चारों ओर से ईसाई पड़ोसियों को करीब देख अत्यंत घृणा अनुभव करते हुए उसने पूछा, ''क्या किसी दूसरे स्थान पर घर नहीं मिल सकेगा?''

    दरबान बोला, ''खोजने से मिल सकता है। लेकिन इतने किराए में ऐसा मकान मिलना कठिन है।''

    अपूर्व जब तार घर पहुंचा तो तारबाबू खाना खाने चले गए थे। एक घंटे प्रतीक्षा करने के बाद जब आए तो घड़ी देखकर बोले, ''आज छुट्टी है। दो बजे ऑफिस बंद हो गया।''

    अपूर्व ऊंची आवाज में बोला, ''यह अपराध आपका है। मैं एक घंटे से बैठा हूं।''

    बाबू बोला, ''लेकिन मैं तो सिर्फ दस मिनट हुए यहां से गया हूं।''

    अपूर्व ने उसके साथ झगड़ा किया। झूठा कहा, रिपोर्ट करने की धमकी दी। लेकिन फिर बेकार समझकर चुप हो गया। भूख, प्यास और क्रोध से जलता हुआ बड़े तारघर पहुंचा। वहां से अपने निर्विघ्न पहुंचने का समाचार जब मां को भेज दिया तब उसे संतोष हुआ।

    दरबान ने विनय भरे स्वर में कहा, ''साहब, हमको भी बहुत दूर जाना है।''

    अपूर्व ने उसे छुट्टी देने में कोई आपत्ति नहीं की। दरबान के चले जाने के बाद घूमते-घूमते, गलियों का हिसाब करते-करते, अंत में मकान के सामने पहुंच गया।

    उसने देखा-तिवारी महाराज एक मोटी लाठी पटक रहे हैं और न जाने क्या अंट-शंट बकते-झकते जा रहे हैं।

    साथ ही एक-दूसरे व्यक्ति तिमंजिले से हिंदी और अंग्रेजी में इसका उत्तर भी दे रहे हैं और घोड़े के चाबुक से बीच-बीच में सट-सट का शब्द भी कर रहे हैं। तिवारी से नीचे उतरने को कह रहे हैं और वह उनको ऊपर बुला रहा है। शिष्टाचार के इस आदान-प्रदान में जिस भाषा का प्रयोग हो रहा है उसे न कहना ही उचित है।

    अपूर्व ने सीढ़ी पर से तेजी से ऊपर चढ़कर तिवारी का लाठीवाला हाथ जोर से पकड़कर कहा, ''क्या पागल हो गया है?'' इतना कहकर उसे ठेलता हुआ घर के अंदर ले गया। अंदर आकर वह क्रोध, क्षोभ और दु:ख से रोते हुए बोला, ''यह देखिए, उस हरामजादे ने क्या किया है।''

    उस कांड को देखते ही अपूर्व की थकान, नींद, भूख और प्यास एकदम हवा हो गई। खिचड़ी के हांडी से अभी तक भाप तथा मसाले की भीनी-भीनी गंध निकल रही है, लेकिन उसके ऊपर, नीचे, आस-पास, चारों ओर पानी फैला हुआ है। दूसरे कमरे में जाकर देखा, उसका साफ-सुथरा बिछौना मैले काले पानी से सन गया है। कुर्सी पर पानी, टेबल पर पानी, यहां तक कि पुस्तकें भी पानी में भीग गई हैं।

    अपूर्व ने पूछा, ''यह सब क्या हुआ?''

    तिवारी ने दुर्घटना का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए बताया-

    ''अपूर्व के जाने के कुछ देर बाद ही साहब घर में आए। आज ईसाइयों का कोई त्यौहार है। पहले गाना-बजाना और फिर नृत्य आरम्भ हुआ और जल्दी ही दोनों के संयोग से यह शास्त्रीय संगीत इतना असहाय हो उठा कि तिवारी को आशंका होने लगी कि लकड़ी की छत साहब का इतना आनंद शायद सहन न कर पाएगी तभी रसोई के पास ऊपर से पानी गिरने लगा? भोजन नष्ट हो जाने के भय से तिवारी ने बाहर जाकर इसका विरोध किया। लेकिन साहब चाहे काला हो या गोरा-देशी आदमी की ऐसी अभद्रता नहीं सह सकता। वह उत्तेजित हो उठा और देखते-ही-देखते अंदर जाकर बाल्टी-पर-बाल्टी पानी ढरकाना आरम्भ कर दिया। इसके बाद जो कुछ हुआ वह अपूर्व ने अपनी आंखों से देख लिया।

    कुछ देर मौन रहकर अपूर्व बोला, ''साहब के कमरे में क्या कोई और नहीं है।''

    ''शायद कोई हो। कोई उसे पियक्कड़ साले के साथ दांत किट-किटकर तो कर रहा था।'' अपूर्व समझ गया कि किसी ने उसे रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन हम लोगों के दुर्भाग्य को तिल भर भी कम नहीं कर सका।

    अपूर्व चुप रहा। जो होना था हो चुका था। लेकिन अब शांति थी।

    अपूर्व ने हंसने की कोशिश करके कहा, ''तिवारी, ईश्वर की इच्छा न होने पर इसी तरह मुंह का ग्रास निकल जाता है। आओ, समझ लें कि हम लोग आज भी जहाज में ही हैं। चिउड़ा-मिठाई अब कुछ बची है। रात बीत ही जाएगी।''

    तिवारी ने सिर हिलाकर हुंकारी भरी और उस हांडी की ओर फिर एक बार हसरत भरी नजरों से देखकर चिउड़ा-मिठाई लेने के लिए उठ खड़ा हुआ। सौभाग्य से खाने-पीने के सामान का संदूक रसोईघर के कोने में रखा था। इसलिए ईसाई का पानी इसे अपवित्र नहीं कर पाया था।

    फलाहार जुटाते हुए तिवारी ने रसोईघर से कहा, ''बाबू, यहां तो रहना हो नहीं सकेगा।''

    अपूर्व अन्यमनस्क भाव से बोला, ''हां, लगता तो ऐसा ही है।''

    तिवारी उसके परिवार का पुराना नौकर है। आते समय उसका हाथ पकड़कर मां ने जो बातें समझाकर बताई थीं, उन्हीं को याद कर उद्विग्न स्वर में बोला, ''नहीं बाबू, इस घर में अब एक दिन भी नहीं। क्रोध में आकर काम अच्छा नहीं हुआ। मैंने साहब को गालियां दी हैं।''

    अपूर्व ने कहा, ''उसे गालियां न देकर मारना ठीक था।''

    तिवारी में अब क्रोध के स्थान पर सद्बुध्दि पैदा हो रही थी। हम लोग बंगाली हैं।

    अपूर्व मौन ही रहा। साहस पाकर तिवारी ने पूछा, ''ऑफिस के दरबान जी से कहकर कल सवेरे ही क्या इस घर को छोड़ा नहीं जा सकता? मेरा तो विचार है कि छोड़ देना ठीक होगा।''

    अपूर्व ने कहा, ''अच्छी बात है, देखा जाएगा।'' दुर्जनों के प्रति उसे कोई शिकायत नहीं है। समय नष्ट न करके चुपचाप जगह छोड़ देना ही उसने उचित समझ लिया है। बोला, ''अच्छी बात है, ऐसा ही होगा। तुम भोजन आदि का प्रबंध करो।''

    ''अभी करता हूं बाबू!'' कहकर कुछ निश्चिंत होकर अपने काम में लग गया।

    लेकिन उसी की बातों का सूत्र पकड़कर, ऊपर वाले फिरंगी का र्दुव्यवहार याद कर अचानक अपूर्व का समूचा बदन क्रोध से जलने लगा। मन में विचार आया कि हम लोगों ने चुपचाप, बिना कुछ सोचे-समझे इसे सहन कर लेना ही अपना कर्त्तव्य समझ लिया है। इसीलिए दूसरों को चोट पहुंचाने का अधिकार स्वयं ही दृढ़ तथा उग्र हो उठा है। इसीलिए तो आज मेरा नौकर भी मुझको तुरंत भागकर आत्महत्या करने का उपदेश देने का साहस कर रहा है। तिवारी बेचारा रसोईघर में फलाहार ठीक कर रहा था। वह जान भी न सका। उसकी लाठी लेकर अपूर्व बिना आहट किए धीरे-धीरे बाहर निकला और सीढ़ियों से ऊपर चढ़ गया।

    दूसरी मंजिल पर साहब के बंद द्वार को खटखटाना आरम्भ किया। कुछ देर बाद एक भयभीत नारी कंठ ने अंग्रेजी में कहा, ''कौन है?''

    ''मैं नीचे रहता हूं और उस आदमी को देखना चाहता हूं।''

    ''क्यों?''

    ''उसे दिखाना है कि उसने मेरा कितना नुकसान किया है।''

    ''वह सो रहे हैं।''

    अपूर्व ने कठोर स्वर में कहा, ''जगा दीजिए। यह सोने का समय नहीं है। रात को सोते समय मैं तंग करने नहीं आऊंगा। लेकिन इस समय उसके मुंह से उत्तर सुने बिना नहीं जाऊंगा।''

    लेकिन न तो द्वार ही खुला और न ही कोई उत्तर ही आया। दो-एक मिनट प्रतीक्षा करने के बाद अपूर्व ने फिर चिल्लाकर कहा, ''मुझे जाना है, उसे बाहर भेजिए।''

    इस बार वह विनम्र और मधुर नारी स्वर द्वार के समीप सुनाई दिया, ''मैं उनकी लड़की हूं। पिताजी की ओर से क्षमा मांगती हूं। उन्होंने जो कुछ किया है, सचेत अवस्था में नहीं किया। आप विश्वास रखिए, आपकी जो हानि हुई है कल हम उसे यथाशक्ति पूरी कर देंगे।''

    लड़की के स्वर से अपूर्व कुछ नर्म पड़ गया। लेकिन उसका क्रोध कम नहीं हुआ। बोला, ''उन्होंने बर्बर की तरह मेरा बहुत नुकसान किया। उसे भी अधिक उत्पात किया है। मैं विदेशी आदमी हूं। लेकिन आशा करता हूं कि कल सुबह मुझसे स्वयं मिलकर इस झगड़े को समाप्त कर लेने की कोशिश करेंगे।''

    लड़की ने कहा, ''अच्छी बात है।'' फिर कुछ देर चुप रहकर बोली, ''आपकी तरह हम लोग भी यहां बिल्कुल नए हैं। कल शाम को ही मालपीन से आए हैं।''

    और कुछ न कहकर अपूर्व धीरे-धीरे उतर आया। देखा, तिवारी भोजन की व्यवस्था में ही लगा था।

    थोड़ा-सा खा-पीकर अपूर्व सोने के कमरे में आकर भीगे तकिए को ही लगाकर सो गया। प्रवास के लिए घर से बाहर पांव रखने के समय से लेकर अब तक विपत्तियों की सीमा नहीं रही थी। सुख-शांति हीन, चिंता ग्रस्त मन में एक ही बात बार-बार उठ रही थी-उस ईसाई लड़की की बात! वह नहीं जानता कि देखने में वह कैसी है। क्या उम्र है, कैसा स्वभाव है। लेकिन इतना जरूर जान गया कि उसका उच्चारण अंग्रेजों जैसा नहीं है और जो भी हो, ईसाई के नाते स्वयं को राजा की जाति का समझकर पिता की भांति घमंडी नहीं है। अपने पिता के अन्याय तथा उत्पात के लिए उसने लज्जा अनुभव की है। उसकी भयभीत, विनम्र स्वर में क्षमा-याचना, उसे अपने कर्कश तथा तीव्र अभियोग की तुलना में असंगत-सी लगी। उसका स्वभाव उग्र नहीं है। कड़ी बात कहने में उसे हिचक होती है।

    तभी बिहारी का मोटा कंठ स्वर उसके कानों तक पहुंचा। वह कह रहा था, ''नहीं मेम साहब यह आप ले जाइए। बाबू भोजन कर चुके। हम लोग यह सब छूते तक नहीं।''

    अपूर्व उठ बैठा और उस ईसाई लड़की के शब्दों को कान लगाकर सुनने की कोशिश करने लगा। तिवारी बोला, ''कौन कहता है कि हमने भोजन नहीं किया? यह आप ले जाइए। बाबू सुनेंगे तो नाराज होंगे।''

    अपूर्व ने धीरे-धीरे बाहर आकर पूछा, ''क्या बात है तिवारी?''

    लड़की जल्दी से पीछे हट गई। शाम हो चली थी लेकिन कहीं भी रोशनी नहीं जली थी। लड़की का रंग अंग्रेजों जैसा सफेद नहीं है लेकिन खूब साफ है। उम्र उन्नीस-बीस या कुछ अधिक होगी। कुछ लंबी होने से दुबली जान पड़ती है। ऊपरी होंठ के नीचे सामने के दोनों दांतों को कुछ ऊंचा न समझा जाए तो चेहरे की बनावट अच्छी है। पैरों में चप्पल, शरीर पर भड़कीली-सी साड़ी, चाल-ढाल कुछ बंगाली और कुछ पारसी जान पड़ती है। एक डाली में कुछ नारंगी, नाशपाती, दो-चार अनार और अंगूर का एक गुच्छा सामने धरती पर रखे हैं।

    अपूर्व ने पूछा, ''यह सब क्या है?''

    लड़की ने अंग्रेजी में धीरे से उत्तर दिया - ''आज हमारा त्यौहार है। मां ने भेजा है। आज तो आपका खाना भी नहीं हुआ।''

    अपूर्व ने कहा, ''अपनी मां को हम लोगों की ओर से धन्यवाद देना और कहना कि हमारा खाना हो गया है।''

    लड़की चुप थी। अपूर्व ने पूछा, ''हमारा खाना नहीं हुआ, आपको यह कैसे पता लगा?''

    लड़की ने लज्जित स्वर में कहा, ''इसीलिए तो झगड़ा हुआ था।''

    अपूर्व बोला, ''नहीं। वास्तव में हमारा

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1