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JEEVAN ME SAFAL HONE KE UPAYE
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JEEVAN ME SAFAL HONE KE UPAYE

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About this ebook

Through this book, identify the hidden powers of your stress and avoid disappointment, fear-free measures and respect actions. This book is to inspire, encourage and fill the person with confidence. The book is like a Beacon light guiding an individual through a route of obstacles.

Languageहिन्दी
Release dateOct 30, 2012
ISBN9789352151028
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JEEVAN ME SAFAL HONE KE UPAYE - SWET MARDAN

हैं

अपने जीवन-उद्देश्य को जानना और उसे प्राप्त करने के लिए दृढ़ आत्मविश्वास रखना, यही है सफलता की ओर पहला कदम। यह अदम्य विचार कि मैं अवश्य सफल होऊंगा और इस पर पूरा विश्वास ही सफलता पाने का मूल मंत्र हैं। याद रखिए! विचार संसार की सबसे महान शक्ति है। यही कारण हैं कि सफलता पाने वाले लोग पूर्ण आत्मविश्वास रखते हुए अपने कर्मों को तो पूरी कुशलता से करते ही हैं, दूसरों की सफलता के लिए भी वे सदा प्रयत्नश्लील रहते हैं।

प्रत्येक विचार, प्रत्येक कर्म का फल अवश्य मिलता है। अच्छे का अच्छा और बुरे का बुरा। यही प्रकृति का नियम है। इसमें देर हो सकती है पर अंधेर नहीं। इसलिए अगर आप सफल होना चाहते हैं, तो अच्छे विचार रखिये; सद्कर्म करिये और जरूरतमंदों की नि:स्वार्थ भाव से सहायता तथा सेवा करिये। मार्ग में आने वाली कठिनाइयों बाधाओं और दूसरों की कटु आलोचनाओं से अपने मन को अशांत न होने दीजिये।

मैं आपको एक सच्ची और रोचक कहानी कई भागों में सुनाना चाहता हूं। यह मेरी आप बीती है।

दूसरों की तरह मुझसे भी गलतियां हुई हैं और मैं अनेक बार गलत भावनाओं के कोहरे में गुम हुआ हूं। मैंने अपनी गलतियों से शिक्षा ली है और यदि ऐसा न होता,तो में दूसरों को सलाह देने के योग्य नहीं हो पाता। मैंने अपनी भूलों और गलतियों से जो ज्ञान बड़े परिश्रम से पाया है, उसी के आधार पर अपनी मानसिक शांति और सफलता का निर्माण किया है।

यह घटना उन दिनों की है जब मैं एक ऐसे व्यक्तिगत संकट में फंस गया था, जिसमें अपना लगभग सभी कुछ गंवा बैठा था और तब मैंने अनुभव किया था कि मुझे एक बार फिर से आर्थिक, मानसिक व आध्यात्यिक उन्नति के लिए प्रयत्न करना होगा।

मैं तब अटलांटा जिले के जोर्जिया नामक स्थान पर था। वहां मध्यवर्गीय आय के लोग रहते थे। एक दिन मैं अपने पुराने व्यापारिक साथी और मित्र मार्क वूडिंग से मिलने गया। उसने नगर के व्यापारिक केंद्र के बीच में एक बड़ा अल्पाहार गृह हाल ही में खोला था।

भेंट के दौरान मेरे दोस्त ने बतलाया कि वह गंभीर कठिनाई में था। वहां का बाजार हर शाम जल्दी बंद हो जाता था। उसके बाद वह जगह श्मशान की तरह शांत हो जाती थी।

इसका नतीजा यह होता था कि लंच टाइम के समय तो काफी ग्राहक आ जाते थे पर शाम को और रात्रिभोज के समय गिनती के ही लोग आते थे। इससे उसे अपने अल्पाहार गृह से पर्याप्त आमदनी नहीं हो रहीं थी। उसे कोई ऐसा उपाय नहीं सूझ रहा था, जिससे लोगों को रात्रिभोज पर आने के लिए प्रेरित किया जा सके।

जब अपनी समस्या न सुलझे

मेरा मस्तिष्क अपनी समस्याओं में व्यस्त था। लेकिन मैंने यह पाठ अपने जीवन में बहुत पहले सीख लिया था कि जब कोई अपनी समस्याओं को हल नहीं कर सके तो उसके लिए सबसे अच्छा तरीका एक ऐसे व्यक्ति की खोज करना है जिसके पास उससे भी अधिक समस्याएं हो, और तब वह उन्हें हल करने में उसकी सहायता करे। मैं अपने दोस्त की समस्या का हल निकालने के लिए अपने विचारों को केंद्रित करने लगा।

चारों ओर नजर दौड़ाने पर मैंने उसके अल्पाहारगृह में एक बड़ा डायनिंग हॉल देखा। उसमें कई सौ व्यक्ति बैठ सकते थे। वहां का फर्नीचर बहुत अच्छा था। उसके अल्पाहारगृह के पास पार्किंग की जगह थी। वहां तक आने-जाने के लिए वाहन की सुविधा भी थी। लोग उस स्थान तक आसानी से आ सकते थे और स्वादिष्ट भोजन का भरपूर म़जा ले सकते थे। लेकिन वास्तविक समस्या लोगों को वहां तक लाने की थी। मैंने दोस्त को अपनी सलाह बिना किसी फीस लिये देने का निश्चय किया-वैसे मुझे फीस वसूल करने के बाद ही सलाह देने की आदत है। उसकी समस्या का हल अचानक एक चमक की तरह मेरे दिमाग में कौंधा। मैंने मार्क को सुझाव दिया कि अगर वह चाहे, तो मैं हर रात उसके डाइनिंग रूम में ‘व्यक्तिगत रूप से कैसे सफलता पायी जाए' विषय पर वैज्ञानिक रीति से भाषण देना शुरू कर सकता हूं। इन भाषणों की मैं कोई फीस नहीं लूंगा और वे केवल उन लोगों के लिए होंगे, जो वहां रात्रिभोज करने आएंगे। भोजन करने के लिए वे कीमत चुकाएंगे।

स्थानीय समाचारपत्रों और इश्तिहारों द्वारा हमने अपनी खोजना का खूब प्रचार किया।

पहली ही रात इतने अधिक ग्राहक-श्रोता आये कि अनेक को हमें निराश लौटाना पड़ा, क्योंकि हॅाल में जगह नहीं थी। उसके बाद से हर रात इतने ग्राहक-श्रोता आने लगे कि कुछ को वापस लौटाना पड़ता। इस तरह मेरे मित्र मार्क वूर्डिंग को रात में भोजन करने वाले ग्राहकों से बहुत अच्छी आमदनी होने लगी।

इस सारी सफलता पर कितनी लागत आयी? केवल विज्ञापन पर व्यय होने वाली धनराशि। मैं अपने व्याख्यानों पर सदैव फीस लेता हूं लेकिन अपने जरूरतमंद मित्र की सहायता के लिए मैंने अपनी सेवाएं निशुल्क दीं। मेरे इस सद्भावना प्रेरित कार्य से कुछ अदृश्य शक्तियां सक्रिय होनी प्रारंभ हो गयीं।

क्षतिपूर्ति का सिद्धांत

उन पुरानी घटनाओं पर विचार करने के बाद में इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि उपरोक्त नि:स्वार्थ कार्य का मुझे बहुत अच्छा फल मिला। मैं अपनी इस रोचक कथा को आगे सुनाऊं उससे पहले इस तथ्य पर बल देना चाहूंगा कि अपने मित्र की नि:स्वार्ध सहायता कर मैंने अपनी समस्याओं का हल कर लिया। भारत के एक लोकप्रिय और पवित्र ग्रंथ रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने ठीक ही लिखा है-

परहित बस जिनके मन माहीं,

तिन्ह कहुं जग दुर्लभ कछू नाहीं ।

यहां कुछ क्षण के लिए रुकिए और विचार कीजिए कि दूसरों की नि:स्वार्थ सेवा या सहायता करने के महान सिद्धान्त को आप कैसे अपना सकते हैं? इसको अपना कर आप धन ही नहीं, वरन् बहुत कुछ उपलब्ध कर सकते हैं। भारतीय मनीषी इसे ही सच्चा धर्म मानते हैं। भारत के संत कवि तुलसीदास जी के शब्दों में-

परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई ।

और धर्मशास्त्र इसी बात को बड़ी स्पष्टता और बारीकी से कुछ यूं कहते हैं - धर्म का आचरण करने वाले इस लोक और परलोक दोनों में अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति करते हैं। इस प्रकार अर्थ, काम और मोक्ष इनका भी कारण धर्म ही बनता है- ‘यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि: स: धर्म: '-जिससे अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति हो वहीं धर्म है।

मेरे व्याख्यानों के ‘सफलता पाने के दर्शन' ने अनेक श्रेणियों के लोगों को मार्क के अल्पाहार गृह की ओर आकर्षित किया। इनमें अनेक व्यापार-प्रबंधक थे, जिनमें से एक जिओर्जिआ पॉवर कंपनी के उच्च अधिकारी थे। वह मेरे व्याख्यान से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अनुरोध किया कि मैं दक्षिण की मुख्य इलेक्ट्रिक पॉवर कंपनियों के उच्च अधिकारियों की बैठक में अतिथिवक्ता के रूप में व्याख्यान दूं।

दूसरों की नि:स्वार्थ सेवा करने से मिलने वाली क्षतिपूर्ति के सिद्धांत ने मेरे लिए अपना प्रभाव दिखाना प्रारंभ कर दिया था।

उस बैठक में मेरा व्याख्यान सुनने वालों में से एक सज्जन दक्षिणी ‘केरोलिना इलैक्ट्रिक एंड गैस कंपनी' के उच्च अधिकारी थे। उनका नाम होमर पेस था। व्याख्यान सुनने के बाद उन्होंने अपना परिचय देते हुए बताया कि वे कई वर्षों से व्यक्तिगत सफलता पाने के विज्ञान का अध्ययन कर रहे हैं। उनका एक मित्र मेरी ही तरह के विचार प्रकट करता है। मुझे अवश्य उसे पत्र लिखना चाहिए।

मैंने उनके मित्र को तत्काल पत्र लिखा। वह एक कॅालेज का प्रेसीडेंट और एक प्रेस का स्वामी था। मेरा पत्र पाकर वह अटलांटा आया। हम दोनों में प्रेमपूर्वक उपयोगी वार्तालाप हुआ। उसने मुझसे एक मौखिक समझौता किया कि मैं उसके शहर आऊं और सफलता पाने के अपने पूरे दर्शन को लिखूं जिसे वह प्रकाशित करेगा।

पहली जनवरी, 1941 को मैंने 'व्यक्तिगत सफलता पाने का विज्ञान' (science of Personal Achievement) पर लिखना प्रारंभ किया। यह विज्ञान आज देश-विदेश के अनेक स्कूलों में पढ़ाया जाता है।

दुर्भाग्य में सौभाग्य का बीज

आज जब मैं पुरानी घटनाओं पर विचार करता हूं, तो पाता हूं कि मार्क वूडिंग से मिलने से पहले मुझे जो असफलता मिली थी, वह इतनी हानिकारक थी कि मैं सदमे की हालत में पहुंच गया था। लेकिन मैंने उस असफलता और सदमे को अपने कार्य के प्रति प्रेम तथा कठोर परिश्रम में रूपांतरित कर दिया। अपने कार्यों द्वारा मुझे इतनी मानसिक शांति प्राप्त हुई जितनी पहले कभी नहीं हुई थी। इससे सिद्ध होता है कि हर दुर्भाग्य अपने में सौभाग्य का बीज छिपाये रहता है।

अब मेरी कहानी में एक नया मधुर घुमाव आया। इसकी कोई पहले से कल्पना भी नहीं कर सकता था। दक्षिणी कारोलिना शहर में मैंने जो फ्लैट लिया था वह मेरे प्रकाशक की सेक्रेटरी के घर के निकट था। वहां पहुंचने के कई महीनों तक मैं उस सेक्रेटरी को अपने कार्य के दौरान कर्यालय में अपनी डेस्क पर व्यस्त देखता रहा। उसके पिता का स्वर्गवास हो चुका था और उस पर अपने परिवार का व्यय उठाने का उत्तरदायित्व था। वह मेरे प्रकाशक के यहां अनेक वर्षों से कार्य कर रहीं थी। उसे अपने कार्य से प्रेम था और वह पूरी लगन से उसमें जुटी रहती थी।

मैं उसे अपने साथ रात्रिभोज पर आमंत्रित करने लगा। हम साथ-साथ सैर-सपाटे के लिए भी जाने लगे। मुझे वह बहुत अच्छी महिला लगी। वह अविवाहिता थी, सुंदर और व्यवहार कुशल भी। मैं उसकी ओर आकर्षित हो गया और उसका प्रशंसक बन गया। लेकिन तभी मुझे अपनी इस प्रेमिका से अलग होना पड़ा।

प्रकृति के नियम विचित्र रीति से काम करते हैं। जापानियों द्वारा पर्लहार्बर पर आक्रमण करने के कारण (द्वितीय युद्ध शुरू हो चुका था) मेरे प्रकाशक के व्यापार पर इतना घातक प्रभाव पड़ा कि उसने मेरे साथ किया गया अनुबंध समाप्त कर दिया। लेकिन उसी समय ‘ली टूर्निया कंपनी' ने टेलीफोन द्वारा मुझे जनसंपर्क के लिए कार्य करने का प्रस्ताव रखा, जिसे मैंने स्वीकार कर लिया। मैं कारोलिना नगर छोड़ कर उस कंपनी में कार्य करने के लिए चल दिया।

उस कंपनी में सिर्फ यह सिद्ध करने का स्वर्ण अवसर मिला कि मेरे द्वारा प्रचारित सिद्धांत मौलिक और मजदूरों के आपसी संबंधों को सौहादपूर्ण बनाने में भी सफल हो सकते हैं। मैंने थोड़े ही दिनों में कंपनी के सर्वोच्च अधिकारी से लेकर साधारण मजदूर तक में एक नया उत्साह, कार्य के प्रति समर्पण और आपसी प्रेम भाव उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त करके दिखा दी। इसके पश्चात मैंने अपने सिद्धांतों और दर्शन पर एक फिल्म बनाने का निश्चय किया, ताकि उससे पूरा उद्योग-जगत लाभ उठा सके। इसके लिए मुझे लास एंजिल्स जाना था, जो कि फिल्म उद्योग का केंद्र है।

मैं कारोलिना की अपनी प्रेमिका को भूला नहीं था और वह भी मुझे याद करती रहती थी। वेस्ट कोस्ट जाने से एक दिन पूर्व हम दोनों ने सहर्ष विवाह कर लिया। वह मेरी पत्नी ही नहीं वरन् सेक्रेटरी, व्यापार में अमूल्य संगिनी और प्रेरणा-स्रोत बन गयी। बीस वर्षों से भी अधिक समय से हमारा यह मधुर और हर्षपूर्ण संग निरंतर चला आ रहा है।

देखा आपने! परमात्मा नि:स्वार्थ सेवा और सहायता करने वाले की कितनी क्षतिपूर्ति करता है। मुझे यह सब शुभ लाभ क्यों और कैसे मिले? उत्तर स्पष्ट है, अपने मित्र की नि:स्वार्थ और नि:शुल्क सहायता करने, अपने कार्य को लगन तथा प्रेम से करने और दूसरों की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहने के कारण।

बीज और फल अलग-अलग नहीं

विश्व प्रसिद्ध विचारक इमर्सन ने ठीक ही कहा है-प्रत्येक कर्म अपने में एक पुरस्कार है। यदि कर्म भली प्रकार किया गया होगा और शुभ होगा, तो निश्चय ही उसका फल भी शुभ होगा। इसी प्रकार गलत तरीके से किया गया अशुभ कर्म हानिकारक फल देगा।

आप इसे पुरातन पंथी नैतिकता कह सकते हैं, जो कि वास्तव में यह है। लेकिन, साथ ही, यह आधुनिक नैतिकता भी है। यह उस समय भी अपना प्रभाव रखती थी जब मनुष्य ने पहिये का आविष्कार किया था और भविष्य में भी प्रभावशाली रहेगी, जब मनुष्य दूसरे ग्रहों में निवास करने लगेगा। यह नैतिकता से कहीं अधिक प्रकृति का क्षतिपूर्ति नियम है। जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा। अपकार एक दिन लौट कर कर्ता के पास अवश्य आते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से इसे कर्म और उसके फल के रूप में दर्शाया जा सकता है। जैसा बीज आप बोएंगे, वैसा फल पाएंगे।

इमर्सन ने लिखा है-कारण और उसका प्रभाव, साधन तथा लक्ष्य, बीज और फल एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते, क्योंकि कारण में ही उससे होने वाला प्रभाव छिपा रहता है, साधन में उसका लक्ष्य पहले से निहित रहता है और फल बीज में स्थित रहता है।

मनुष्य जीवन भर इस अज्ञानतापूर्ण अंधविश्वास से चिंतित रहते हैं कि कहीं कोई उन्हें धोखा न दे जाए। उन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि मनुष्य को स्वयं उसके सिवाय कोई दूसरा धोखा नहीं दे सकता। वास्तव में, वह अपने ही लोभ, मोह और भय के कारण धोखे में फंसता है। हम भूल जाते हैं कि एक परमशक्ति भी है जो सदैव हर व्यक्ति के साथ रहती है । इस परमशक्ति को आत्मा, परमात्मा, खुदा या गॉड किसी भी नाम से आप पुकार सकते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी से कोई समझौता या अनुबंध करता है, तो यह परमशक्ति अदृश्य और मौनरूप से एक साक्षी की तरह उपस्थित रहती है। हम सारी दुनिया को धोखा दे सकते हैं पर इस शक्ति को नहीं। इसलिए दूसरों को धोखा देकर या उनका शोषण करके जो व्यक्ति सफलता या धन प्राप्त करता है उसको अंत में भयानक परिणामों को भुगतना पड़ता है। उसका स्वास्थ्य, धन तथा मानसिक शांति सभी कुछ नष्ट हो जाता है। इसलिए हमें स्थायी सुख-शांति तथा सफलता पाने के लिए ऐसे साधनों को अपनाना चाहिए जिनसे दूसरों को भी लाभ पहुंचे। यहीं कारण है कि संसार के सभी संतों और महापुरुषों ने नि:स्वार्थ कर्म करने पर बल दिया है। नि:स्वार्थ भाव से की गई सेवा का कर्म ईश्वर को ऋणी बना देता है और ईश्वर उसे ब्याज सहित वापस करता है।

कर्म में ही सच्चा आनंद है

भारत के पवित्र ग्रंथ गीता में इसी नि:स्वार्थ कर्म क्रो निष्काम कर्म कहा गया है। फल की इच्छा से रहित होकर अपने कर्म को पूर्ण कुशलता से करना ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। 'योग: कर्मसु कौशलम्' 'कर्मों में कुशलता ही योग है। सच यह है कि जब हम अपने कर्म में इतने लीन हो जाते हैं कि हमारा अहंभाव भी मिट जाता है, जब हम निष्काम हो जाते हैं, तब मन दिव्य आनंद से भर जाता है। उस समय कर्म ही हमारा पुरस्कार बन जाता है। कलाकारों, वैज्ञानिको और दार्शनिकों को अपने कर्म में इसी आनंद का अनुभव होता है।

कर्मण्ययेवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफल हेतुर्भुर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि।।

‘तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं। इसलिए तू कर्म-फल का हेतु मत बन तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।' यह गीता में श्रीकृष्ण का अर्जुन को उपदेश है। इसे 'कर्मयोग' कहा गया है। योग का एक अर्थ परमात्मा से मिलने का साधन भी है। इसी कर्म को पूजा कहा गया है।

कोई भी विपति या दुख पड़ने पर हमें घबड़ाना नहीं चाहिए न अपने कर्तव्य पथ से हटना ही चाहिए। ऐसे अवसरों पर उस परमशक्ति के क्षतिपूर्ति के सिंद्धांत पर विश्वास रखते हुए यह देखना चाहिए कि उस दुख या विपति में उन्नति और विकास के कौन से अवसर छिपे हुए हैं। उन अवसरों को पहचान कर उनका सदुपयोग करना ही बुद्धिमानी है। सफल व्यक्ति ऐसे ही अवसरों का लाभ उठाकर महान बन जाते हैं और असफल लोग अपनी परेशानियों तथा दुखों का रोना रोते हुए उन्नति की राह में पिछड़ जाते हैं।

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