PANCHTANTRA KI KATHAYE
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About this ebook
A beautiful translation of the classic sanskrit book. World famous story books series which is based on the lives and times of jungle animals.
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PANCHTANTRA KI KATHAYE - ACHARYA VISHNU SHARMA
है।
प्रथम तंत्र
मित्र-भेद
महिलारोप्य नामक नगर में वर्धमान नाम का एक वैश्य रहता था। उसने व्यापार में पर्याप्त धन अर्जित किया था किन्तु उसे संतोष नहीं था। वह और अधिक कमाना चाहता था। धन कमाने के छ: उपाय हैं - भिक्षा, राजसेवा, खेती, विद्या, सूद तथा व्यापार। इन छ: उपायों में उसे व्यापार ही सर्वोत्तम लगा। व्यापार के भी कई प्रकार हैं, उनमें सबसे उत्तम है परदेश से उत्तम वस्तुओं का संग्रह करके उन्हें स्वदेश में लाकर अच्छे दामों पर बेचा जाए। यही सोच कर वर्धमान ने एक दिन अपना रथ तैमार करवाया। रथ में दो सुंदर बैल जुतवाए। बैलों के नाम थे- संजीवक और नंदन। फिर रथ के साथ कई नौकर-चाकर और बैलगाडियों में क्रय-विक्रय योग्य वस्तुएं लेकर वह व्यापार करने के लिए मथुरा को ओर रवाना हो गया।
मार्ग में चलते हुए जब वे यमुना के कछार में पहुंचे तो संजीवक बैल का एक पांव दलदल में फंस गया । वर्धमान ने बलपूर्वक उसे बढ़ाना चाहा तो बैल का एक पांव ही टूट गया । पांव ठीक होने की प्रतीक्षा में वह कई दिन जंगल में पड़ा रहा । कई दिन प्रतीक्षा के बाद भी जब बैल चलने योग्य न हुआ तो उसने बैल की रखवाली के लिए अपने दो सेवक वहां छोड़ दिए और आगे के लिए प्रस्थान किया । जंगल हिंसक जीवों से भरा हुआ था । वर्धमान के सेवक एक ही रात में घबरा गए और बैल को छोड़कर भाग गए । उन्होंने अपने स्वामी से जाकर झूठ बोल दिया कि संजीवक मर गया । हमने उसका विधिवत् दाह-संस्कार कर दिया है । अपने प्रिय बैल की मृत्यु पर वर्धमान को बहुत दु :ख हुआ किन्तु संतोष करने के अलावा उसके पास कोई उपाय न था ।
उधर, संजीवक की पीड़ कुछ कम हुई तो उसने चलना-फिरना शुरू कर दिया। जंगल का उन्मुक्त वातावरण और मनपसंद हरी-हरी घास चरने को मिली तो वह कुछ ही दिन में यब हष्ट-पुष्ट हो गया । दिन भर निर्द्वन्द्व भाव से नदी किनारे विचरण करना और अपने पैने सींगों से किनारे की झाड़ियों को रौंदना उसका प्रिय खेल बन गया । एक दिन पिंगलक नाम का सिंह यमुना तट पर पानी पीने आया । उसने दूर से आती संजीवक की जोरदार हुंकार सुनी । उस हुंकार को सुनकर वह बुरी तरह भयभीत हो गया और बिना जल पिए ही वहां से भाग कर झाड़ियों में जा छिपा ।
इस दृश्य को दो गीदड़ों ने भी देखा । उनके नाम थे - करटक और दमनक । ये दोनों गीदड़ कभी सिंह के बहुत विश्वास पात्र थे किन्तु अब सिंह द्वारा उपेक्षा किए जाने के कारण बहुत दु:खी रहते थे । फिर भी, भोजन की तलाश में वे उसके इर्द-गिर्द मंडराते रहते थे । सिंह जब शिकार करता था तो उसका छोड़ा हुआ शिकार उन्हें भी खाने को मिल जाता था । पिंगलक को भयभीत होकर भागते देखा, तो उन दोनों को बहुत आश्चर्य हुआ । दमनक ने अपने साथी से कहा – करटक, हमारा स्वामी इस जंगल का राजा है । जंगल के सभी प्राणी उससे डरते हैं, किन्तु आज वही इस तरह भयभीत होकर झाड़ियों में डरा, सिमटा बैठा है। प्यासा होते हुए भी वह जल पिए बिना ही किनारे से भाग आया, इसका क्या कारण हो सकता है?
करटक ने कहा, दमनक, कारण कुछ भी हो, हमें उस कारण को जानने की कोई आवश्यकता नहीं है । दूसरों के काम में कौतूहलवश हस्तक्षेप करना बुद्धिमानी नहीं है । जो ऐसा करता है, उसे उस वानर की तरह तड़प-तड़प कर मरना पड़ता है, जिसने दूसरे के काम में कौतूहलवश हस्तक्षेप किया था ।
वह कैसे?
, दमनक ने पूछा ।
सुनो।
कहते हुए करटक ने बताया ।
अनधिकार चेष्टा
किसी वैश्य ने नगर के समीप एक वन में देव मंदिर बनवाना आरंभ किया । उसमें काम करने वाले कारीगर और मजदूर दोपहर को भोजन करने के लिए नगर चले जाया करते थे । एक दिन अकस्मात् वानरों का एक समूह घूमता-घूमता उस स्थान पर आ पहुँचा । उन कारीगरों में से किसी ने एक आधे-चिरे खम्भे में एक लकडी का खूंटा गाड़कर छोड़ दिया था । वानरों ने वहां पहुँचकर वृक्षों, मकानों, लकड़ियों और खम्भों पर चढ़कर निर्द्वन्द्व भाव से खेलना शुरू कर दिया । उन वानरों में से एक वानर, उस अध-चिरे खम्भे पर जा बैठा और दोनों हाथों से पकड़कर उस खूंटे को उखाड़ने लगा । वानर के अंडकोष अधचिरे भाग के मध्य लटके हुए थे । खूंटा उखड़ा तो खम्मे के दोनों भाग जोर से जा मिले । वानर के अंडकोष उस चिरे भाग के मध्य दब गए । बुरी तरह से तड़पते हुए वानर ने वहीं दम तोड़ दिया । इसीलिए मैं कहता हूं कि हमें दूसरों के काम में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए । सिंह का बचा-खुचा आहार हमें मिल ही जाता है फिर दूसरी बातों की चिंता क्यों करें? दमनक ने कहा, लगता है तुम सिर्फ भोजन के लिए ही जीते हो । स्वामी के हित-अहित की तुम्हें कोई चिंता नहीं है । पेट तो सभी प्राणी भर लेते हैं, जो दूसरों के लिए जीता है, उसी का जीवन सफल है ।
करटक संतुष्ट न हुआ । बोला, लेकिन हम अपने स्वामी के हित-अहित की चिंता करें ही क्यों? उसने हमें अपमान के सिवा दिया ही क्या है? यदि वह हमें उचित सम्मान देता तो जंगल के प्राणियों में हमारा भी मान-सम्मान होता, हम बहुत प्रतिष्ठापूर्वक रहते ।
दोनों में देर तक वाद-विवाद चला । करटक, दमनक के विचारों से सहमत नहीं को रहा था । अंत में निर्णय किया गया कि दमनक अकेला ही सिंह के पास जाए, उससे भय का कारण पूछे, फिर दोनों मिलकर सिंह के भय को दूर करने की तरकीब सोचें ताकि उसकी नजरों में उनका महत्त्व बढ़ जाए ।
करटक को एक जगह प्रतीक्षा करने को कहकर दमनक सिंह के पास पहुँचा । उसे प्रणाम किया और बार-बार अपनी निष्ठा का विश्वास दिलाकर विनयपूर्वक पूछा, स्वामी ! आप नदी किनारे जल पीने गए थे, फिर बिना जल पिए ही वहां से क्यों लौट आए?
सिंह को दमनक पर कुछ-कुछ विश्वास हो गया था । उसने बताया, दमनक, मैंने आज जंगल से आता एक भयानक गर्जन सुना था । वह गर्जन इतना भयंकर था कि सुनकर मेरा तो कलेजा ही दहल गया । अवश्य ही कोई विकराल जीव इस जंगल में आ गया है । मुझे तो अपने प्राणों की चिंता होने लगी है । सोच रहा हूं कि इस जंगल को छोड़कर किसी दूसरे जंगल में चला जाऊँ ।
दमनक बोला, स्वामी ! ऊंचे शब्द-मात्र को सुनकर भयभीत होना ठीक नहीं है । ऊंचे शब्द तो कई प्रकार के वाद्ययंत्रों के भी होते हैं । भेरी, मृदंग, शंख, पटह, आदि ऐसे अनेक वाद्य हैं जिनको आवाज बहुत ऊंची होती है । उनसे कौन डरता है? यह जंगल आपके पूर्वजों के समय का है । वे यहां रहकर राज्य करते रहे हैं । इसे इस प्रकार छोड़कर जाना युक्तिसंगत नहीं है । एक ढोल की वास्तविकता गोमायु को उसके अन्दर जाकर ही मालूम हुई थी ।
यह गोमायु का क्या किस्सा है?
सिंह ने पूछा ।
दमनक बोला, सुनिए ।
ढोल की पोल
गोमायु नाम का एक गीदड़ भूख-प्यास से व्याकुल होकर जंगल में भटक रहा था । भोजन की तलाश में वह एक ऐसे स्थान पर पहुंच गया, जहां कुछ वर्ष पूर्व दो सेनाओं में युद्ध हुआ था । वहां एक वृक्ष के नीचे एक नगाड़ा पड़ा हुआ था । हवा के झोंकों से जब पेड़ की शाखाएं उस नगाड़े से टकरातीं तो उससे जोर की आवाज निकलती थी । गीदड़ ने उसे कोई मरा हुआ जीव समझा । उससे निकलती आवाज से पहले तो वह बहुत डरा, फिर किसी तरह हिम्मत जुटाकर उसके करीब पहुंच गया । धड़कते दिल से उसने अपने पंजों से नगाड़े पर चोट की । जब उसे कोई हानि नहीं हुई तो उसका हौसला बढ़ गया । वह मन ही मन बहुत खुश हुआ कि आज तो कई दिन के लिए भोजन का प्रबंध हो गया ।
उसने किसी प्रकार नगाड़े के चमड़े को उधेड़ा । इस कोशिश में उसके एक-दो दांत भी टूट गए । नगाड़ा चिर जाने पर मन माना मांस-मज्जा मिलने के लोभ में वह उसके भीतर प्रविष्ट को गया । किंतु अंदर जाकर उसे भारी निराशा हुई । क्योंकि वह नगाड़ा तो अंदर से बिलकुल ही खोखला था ।
इसीलिए मैं कहता हूं कि शब्द-मात्र को सुनकर ही उससे भयभीत होना उचित नहीं है । पिंगलक सिंह ने कहा, मेरे सभी साथी उस आवाज से भयभीत होकर जंगल से भागने की योजना बना रहे हैं । उन्हें किस तरह धीरज बंधाऊं?
दमनक ने कहा, इसमें उनका क्या दोष है? सेवक तो स्वामी का ही अनुकरण करेंगे । जैसा स्वामी होगा, वैसे ही उसके सेवक होंगे । यही संसार की रीति है । आप धीरज रखें, साहस से काम लें । मैं शीघ्र ही उस आवाज के स्वामी को देखकर आऊँगा ।
यानी तुम वहां जाओगे?
पिंगलक ने आश्चर्य से पूछा । तुम्हारे अंदर है इतना साहस?
स्वामी के आदेश का पालन करना ही सेवक का काम है । यदि आप आदेश दें तो मैं आग में कूद पडूं । आपके आदेश पर तो मैं समुद्र में भी छलांग लगा सकता हूं।
तुम्हें मेरी और से आज्ञा है दमनक।
पिंगलक बोला । मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं । जाओ, उस शब्द का पता लगाओ ।
दमनक ने पिंगलक को प्रणाम किया और उसी समय संजीवक के शब्द की ध्वनि का लक्ष्य बांधकर उस दिशा में चल पड़ा ।
दमनक के जाने के बाद पिंगलक ने विचार किया, यह बात अच्छी नहीं हुई कि मैंने इस गीदड़ पर विश्वास करके उसके सामने अपने मन का भेद खोल दिया । कहीं यह इसका फायदा उठाकर दूसरे पक्ष से न मिल जाए और मुझ पर आक्रमण करने के लिए उसे उकसा न दे । यदि ऐसा हुआ तो बहुत बुरा होगा । अपमानित हुए सेवक वफादार नहीं होते, वे सदा बदले की ताक में रहते हैं । इसलिए मुझे किसी सुरक्षित स्थान में जाकर दमनक की प्रतीक्षा करनी चाहिए ।
यह सोचकर वह एक सुरक्षित स्थान पर चला गया ।
उधर दमनक ने शीघ्र ही संजीवक को खोज लिया । दूर से ही उसने उसे देखा । यह देखकर उसे भारी प्रसन्नता हुई कि वह कोई विकराल जीव नहीं, मात्र एक सीधा-साधा-सा बैल था । उसने सोचा, अब मैं संधि-विग्रह की कूटनीति से पिंगलक को अवश्य अपने वश में कर लूंगा । आपादग्रस्त राजा ही मंत्रियों के वश में होते हैं । वह लौटकर पिंगलक के पास पहुंचा । पिंगलक ने व्यग्रतापूर्वक पूछा, दमनक, क्या तुमने उस विकराल जीव को देखा?
दमनक बोला, हां स्वामी ! न सिर्फ उसे देखा, बल्कि उससे बातें भी की । सचमुच, वह बहुत बलशाली जीव है
यह सुनकर पिंगलक का चेहरा उतर गया । मरी सी आवाज में बोला, मैं तो पहले ही कहता था, इसीलिए तो मुझे अपने प्राणों का भय लग रहा था । खैर... तुम ये बताओ, उससे क्या-क्या बाते हुई?
बहुत-सी बातें हुई, स्वामी ! पर मेरा विश्वास है कि मैं उससे आपकी मित्रता करा सकता हूं। उससे भयभीत होने की जरूरत नहीं है ।
पर कैसे?
पिंगलक को यकीन ही नहीं हो रहा था । वह इसे दमनक की कोई चाल ही समझ रहा था ।
दमनक ने जैसे उसके मन के भाव ताड़ लिये । वह बोला, " ' स्वामी ! आप किंचित भी संदेह न करें । मैं एक मामूली-सा जीव जरूर हूं पर मुझ में बुद्धि की कोई कमी नहीं है । और ये तो आप जानते ही हैं कि बुद्धि के बल पर क्या नहीं किया जा सकता? जिस काम को बड़े-बड़े हथिमार नहीं कर पाते वह काम बुद्धि के बल पर सहज ही पूरा किया जा सकता है । आप आदेश दें तो मैं उस आवाज के स्वामी को आपकी सेवा में प्रस्तुत कर