कर्म का सिद्धांत
By Dada Bhagwan
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'मैंने किया' बोला कि कर्मबंध हो जाता है। ये 'मैंने किया' इसमें इगोइज़्म (अहंकार) है और इगोइज़्म से कर्म बंधा जाता है। जिधर इगोइज़्म ही नहीं, मैंने किया ही नहीं है, वहाँ कर्म नहीं होता है ।
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Book preview
कर्म का सिद्धांत - Dada Bhagwan
त्रिमंत्र
नमो अरिहंताणं
नमो सिद्धाणं
नमो आयरियाणं
नमो उवज्झायाणं
नमो लोए सव्वसाहूणं
एसो पंच नमुक्कारो,
सव्व पावप्पणासणो
मंगलाणं च सव्वेसिं,
पढ़मं हवइ मंगलम्॥ १ ॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ २ ॥
ॐ नम: शिवाय ॥ ३ ॥
जय सच्चिदानंद
‘दादा भगवान’ कौन ?
जून 1958 की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर ‘दादा भगवान’ पूर्ण रूप से प्रकट हुए और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घंटे में उन्हें विश्वदर्शन हुआ। ‘मैं कौन? भगवान कौन? जगत् कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?’ इत्यादि जगत् के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सम्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजी भाई पटेल, गुजरात के चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कॉन्ट्रैक्ट का व्यवसाय करनेवाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष!
‘व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं’, इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसीके पास से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घंटों में अन्य मुमुक्षुजनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात् बिना क्रम के, और क्रम अर्थात् सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढऩा। अक्रम अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट।
वे स्वयं प्रत्येक को ‘दादा भगवान कौन?’ का रहस्य बताते हुए कहते थे कि ‘‘यह जो आपको दिखते हैं वे दादा भगवान नहीं हैं, वे तो ‘ए.एम.पटेल’ हैं। हम ज्ञानीपुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे ‘दादा भगवान’ हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और ‘यहाँ’ हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।’’
निवेदन
आप्तवाणी मुख्य ग्रंथ है, जो दादा भगवान की श्रीमुख वाणी से, ओरिजिनल वाणी से बना है, वो ही ग्रंथ के छ: विभाजन किए गए हैं, ताकि वाचक को पढऩे में सुविधा हो।
1. ज्ञानी पुरुष की पहचान
2. जगत् कर्ता कौन?
3. कर्म का सिद्धांत
4. अंत:करण का स्वरूप
5. सर्व दु:खों से मुक्ति
6. आत्मबोध
परम पूज्य दादाश्री हिन्दी में बहुत कम बोलते थे, कभी हिन्दी भाषी लोग आ जाते थे, जो गुजराती नहीं समझ पाते थे, उनके लिए परम पूज्य दादाश्री हिन्दी बोल लेते थे, वो वाणी जो केसेटों में से ट्रान्स्क्राईब करके यह आप्तवाणी ग्रंथ बना है! वो ही आप्तवाणी ग्रंथ को फिर से संकलित करके यह छ: छोटे ग्रंथ बनाए हैं! उनकी हिन्दी ‘प्योर’ हिन्दी नहीं है, फिर भी सुनने वाले को उनका अंतर-आशय ‘एक्ज़ेक्ट’ समझ में आ जाता है। उनकी वाणी हृदयस्पर्शी, हृदयभेदी होने के कारण जैसी निकली, वैसी ही संकलित करके प्रस्तुत की गई है ताकि सुज्ञ वाचक को उनके ‘डिरेक्ट’ शब्द पहुँचे। उनकी हिन्दी यानी गुजराती, अंग्रेजी और हिन्दी का मिश्रण। फिर भी सुनने में, पढऩे में बहुत मीठी लगती है, नैचुरल लगती है, जीवंत लगती है। जो शब्द हैं, वे भाषाकीय द्रष्टि से सीधे-सादे हैं किन्तु ‘ज्ञानी पुरुष’ का दर्शन निरावरण है, अत: उनका प्रत्येक वचन आशयपूर्ण, मार्मिक, मौलिक और सामने वाले के व्यू पोइन्ट को एक्ज़ेक्ट समझकर होने के कारण वह श्रोता के दर्शन को सुस्पष्ट खोल देता है और उसे ऊँचाई पर ले जाता है।
- डॉ. नीरू बहन अमीन
संपादकीय
जीवन में ऐसे कितने ही अवसर आते हैं, जब अपने मन को समाधान नहीं मिलता कि ऐसा क्यों हुआ? भूकंप में कितने सारे लोग मर गए, बद्री-केदार की यात्रा करने वाले बर्फमें दब गए, निर्दोष बच्चा जन्म लेते ही अपंग हो गया, किसी की एक्सिडेन्ट में मृत्यु हो गई... तो यह किस वजह से? फिर ये कर्म का फल है,