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दादा भगवान ? (Hindi)
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दादा भगवान ? (Hindi)

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About this ebook

अम्बालाल मुल्जिभई पटेल (जिन्हें हम दादा भगवान के नाम से जानते है), इन्हें जून १९५८ में सूरत स्टेशन पर आत्मा के पूर्ण साक्षात्कार का अनुभव हुआ| मूल भादरण में एक बहुत ही प्रतिष्ठित परिवार में जन्मे अम्बालाल भाई कोन्त्रक्टोर का धंधा करते थे| जून १९५८ की एक शाम वह वड़ोदरा जाने के लिए सूरत स्टेशन पर, अँधेरा होने से पहले अपना शाम का भोजन समाप्त कर, ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे| जब उनका नौकर उनका डब्बा धोने के लिए गया तब उन्हें संपूर्ण ब्रम्हांड का ज्ञान केवल ४८ मिनिटों में हुआ| जगत कौन चलता है? मैं कौन हूँ? मोक्ष क्या है? मुक्ति का अर्थ क्या है? मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकता है इत्यादि प्रश्नों का उत्तर उन्हें उन ४८ मिनिटों में हुआ| यह आत्म साक्षात्कार केवल एक ही जन्म का फल नहीं था परंतु उनकी जन्मो जनम की खोज का नतीजा था| ‘दादा भगवान’, इस शब्द का प्रयोग उनके भीतर प्रकट हुए भगवान को संबोधित करने के लिए किया जाने लगा| A.M Patel, शादी शुदा थे पर उन्हें बचपन से ही सनातन सुख और शाश्वत धर्म को जानने की कुतूहलता रहती थी| ऐसे अद्वितीय इंसान, मतलब अम्बालाल भाई ने जून १९५८ में लोगो को आत्मा ज्ञान प्राप्त करवाने का आसान तरीका खोज निकला जिसे उन्होंने ‘अक्रम विज्ञान’ कहा|

Languageहिन्दी
Release dateNov 14, 2016
ISBN9789386289506
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    दादा भगवान ? (Hindi) - Dada Bhagwan

    www.dadabhagwan.org

    दादा भगवान ?

    (परम पूज्य दादाश्री का जीवनचरित्र - संक्षेप में)

    मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरू बहन अमीन

    अनुवाद : महात्मागण

    प्रकाशक : श्री अजीत सी. पटेल

    दादा भगवान विज्ञान फाउन्डेशन ,१,वरुण अपार्टमेन्ट, 37,श्रीमाली सोसायटी

    नवरंगपुरा पुलिस स्टेशन के सामने,

    नवरंगपुरा, अहमदाबाद - ३८०००९, गुजरात.

    Gujarat,India.

    फोन :+91 7935002100

    © Dada Bhagwan Foundation,

          5, Mamta Park Society, B\h. Navgujarat College,

         Usmanpura, Ahmedabad -380014, Gujarat, India.

         Email : info@dadabhagwan.org

         Tel : + 91 79 3500 2100

    All Rights Reserved. No part of this publication may be shared, copied, translated or reproduced in any form (including electronic storage or audio recording) without written permission from the holder of the copyright. This publication is licensed for your personal use only.

    प्रथम संस्करण : २,००० प्रतियाँ सितम्बर, २००७

    रीप्रिन्ट : ८१०० प्रतियाँ जुलाई, २००८ से अप्रैल, २०१२

    नयी रीप्रिन्ट : ३,००० प्रतियाँ नवम्बर, २०१४

    भाव मूल्य : ‘परम विनय’ और‘मैं कुछ भी नहीं जानता’, यह भाव!

    मुद्रक :अंबा मल्टीप्रिन्ट

    B-99, इलेक्ट्रॉनिक्स GIDC,

    क-6 रोड, सेक्टर-25,

    गांधीनगर-382044.

    Gujarat, India.

    फोन : +91 79 3500 2142

    निवेदन

    ज्ञानी पुरुष संपूज्य दादा भगवान के श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहारज्ञान से संबंधित जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता है। विभिन्न विषयों पर निकली सरस्वती का अद्भुत संकलन इस पुस्तक में हुआ है, जो नए पाठकों के लिए वरदान रूप साबित होगा।

    प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ध्यान रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो, जिसके कारण शायद कुछ जगहों पर अनुवाद की वाक्य रचना हिन्दी व्याकरण के अनुसार त्रुटिपूर्ण लग सकती है, लेकिन यहाँ पर आशय को समझकर पढ़ा जाए तो अधिक लाभकारी होगा।

    प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाए गए शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गए वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गए हैं। जबकि कुछ जगहों पर अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ के रूप में रखे गए हैं। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों इटालिक्स में रखे गए हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालांकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द अर्थ के रूप में, कोष्ठक में और पुस्तक के अंत में भी दिए गए हैं।

    ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है।

    अनुवाद से संबंधित कमियों के लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हैं।

    संपादकीय

    जून 1958 की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेलवे स्टेशन, प्लेटफॉर्म नं. 3 की बेंच पर श्री अंबालाल मूलजी भाई पटेल बैठे थे। सोनगढ-व्यारा से बड़ौदा जाने के लिए ताप्ती-वेली ट्रेन से उतरकर वे बड़ौदा जाने वाली ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे, उस समय प्रकृति ने रचा अध्यात्म मार्ग का अद्भुत आश्चर्य!

    श्री अंबालाल मूलजी भाई रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर ‘दादा भगवान’ पूर्ण रूप से प्रकट हुए। एक घंटे में उन्हें विश्वदर्शन हुआ! जगत् के तमाम आध्यात्मिक प्रश्रों के उत्तर मिले, संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए और प्रश्रों की पूर्णाहूति हुई! जगत् क्या है? कैसे चल रहा है? हम कौन? ये सभी कौन ? कर्र्म क्या है? बंधन क्या है? मुक्ति क्या है? मुक्ति का उपाय क्या है?... इत्यादि जगत् के असंख्य आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण समाधान प्राप्त हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सम्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजी भाई पटेल, गुजरात के चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कॉन्ट्रैक्ट का व्यवसाय करने वाले, फिर भी परम ‘सत्’ को ही जानने की, ‘सत्’को ही पाने की और बचपन से ही ‘सत्’ स्वरूप होने की निरंतर कामना करने वाले इस भव्य पात्र में ही ‘अक्रम विज्ञान’ प्रकट हुआ।

    उन्हें जो प्राप्त हुआ वह तो एक आश्चर्य का सृजन तो था ही लेकिन उससे भी बड़ा आश्चर्य तो यह था कि उन्होंने जो देखा, जाना और अनुभव किया वैसी ही प्राप्ति अन्यों को करवाने की उनकी समर्थता! खुद अपना आत्म कल्याण करके मुक्ति पाने वाले अनेक होंगे लेकिन अपनी तरह हज़ारों को छुड़वाने का सामर्थ्य तो सिर्फ तीर्थंकरों में या ज्ञानियों में भी, कोई विरले ज्ञानी में ही होता है! ऐसे विरल ज्ञानी, जिन्होंने इस कलिकाल के अनुरूप ‘इन्स्टन्ट’ आत्मज्ञान प्राप्ति का अद्भुत मार्ग खोल दिया, जो ‘अक्रम’ के नाम से प्रचलित हुआ। ‘अक्रम’ यानी अहंकार का फुल स्टॉप (पूर्ण विराम)। और क्रम यानी अहंकार का कोमा (अल्पविराम)। अक्रम यानी जो क्रम से नहीं हो, वह। क्रम यानी सीढ़ी चढऩा और अक्रम यानी लिफ्ट में तुरंत पहुँच जाना। क्रम मुख्य मार्ग है जो नियमित रूप से है। जबकि ‘अक्रम’ वह, अपवाद मार्ग है, ‘डायवर्ज़न’ है।

    क्रम मार्ग कहाँ तक चलता है? जहाँ तक मन-वचन-काया की एकता होती है, अर्थात् जैसा मन में हो वैसा ही वाणी में हो और वर्तन में हो, जो इस समय निॢववाद रूप से असंभव है, क्योंकि क्रम का सेतु बीच में टूट गया है और कुदरत ने मोक्षमार्ग जारी रखने के लिए, अंतिम अवसर के तौर पर यह ‘डायवर्ज़न’ अक्रम मार्ग संसार को उपलब्ध कराया है। इस अंतिम अवसर से जो लाभान्वित हो गया, समझो ‘उस’ पार निकल गया।

    क्रम मार्ग में पात्र की शुद्धि करते-करते, क्रोध-मान-माया-लोभ को शुद्ध करते-करते साधक को अंतत: अहंकार पूर्णतया शुद्ध करना पड़ता है, ताकि उसमें क्रोध-मान-माया-लोभ का परमाणु मात्र न रहे, जब अहंकार पूर्णतया शुद्ध होता है तभी शुद्धात्मा स्वरूप के साथ अभेदता होती है।

    इस काल में क्रमिक मार्ग असंभव हो गया है इसलिए ‘अक्रम विज्ञान’ के द्वारा मन-वचन-काया की अशुद्धियों को ज्यों का त्यों एक ओर रखकर ‘डायरेक्ट’ अहंकार शुद्ध हो जाए और अपने स्वरूप के साथ अभेद हो जाए, ऐसा संभव हुआ है। उसके बाद मन-वचन-काया की अशुद्धियाँ, क्रमश: उदयानुसार आने पर उनकी संपूर्ण शुद्धि ‘ज्ञानी’ की आज्ञा में रहने पर साहजिक रूप से हो जाती है।

    इस दूषमकाल में कठिन कर्मों के मध्य सभी सांसारिक ज़िम्मेदारियाँ आदर्श रूप में अदा करते-करते भी ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ यह लक्ष्य निरंतर बना रहता है। ‘अक्रम विज्ञान’ की यह अद्भुत देन तो देखो! कभी सुनी न हो, कहीं पढ़ी न हो ऐसी अपूर्व बात, जो एक बार तो मानने में ही नहीं आती, फिर भी आज हकीकत बन गई है!

    ऐसे अद्भुत ‘अक्रम विज्ञान’ को प्रकाशित करने वाले पात्र का चयन कुदरत ने किस आधार से किया होगा, इसका उत्तर तो प्रस्तुत संकलन में अक्रम ज्ञानी के पूर्वाश्रम के प्रसंग और ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् उनकी जागृति की पराकाष्ठा को दर्शाते प्रसंगों से स्वयं प्राप्त होता है।

    जीवन में कडुवे-मीठे अवसरों से किसका पाला नहीं पड़ा होगा? लेकिन ज्ञानी उनसे जुदा कैसे रह पाए? जीवन की चाँदनी और अमावस का आस्वादन, ज्ञान-अज्ञान दशा में अनुभव करते हुए, तब उन प्रसंगों में ज्ञानी की न्यारी, अनोखी और मौलिक दृष्टि होती है। ऐसे सामान्य अवसरों में अज्ञानी

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