पैसों का व्यवहार
By Dada Bhagwan
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एक सुखी और अच्छा जीवन बिताने हेतु, पैसा हमारा जीवन का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है| पर क्या कभी आपने यह सोचा है कि, ‘ क्यों किसी के पास बहुत सारा पैसा होता है और किसी के पास बिल्कुल नहीं?’ परम पूज्य दादाजी का हमेशा से यही मानना था कि, पैसों के व्यवहार में नैतिकता बहुत ही ज़रूरी है| अपने अनुभवों के आधार पर और ज्ञान की मदद से वह पैसों के आवन-जावन, नफा-नुक्सान, लेन-देन आदि के बारे में बहुत ही विगतवार जानते थे| वह कहते थे कि मन की शान्ति और समाधान के लिए किसी भी व्यापार में सच्चाई और ईमानदारी के साथ नैतिक मूल्यों का होना भी बहुत ही ज़रूरी है| जिसके बिना भले ही आपके पास बुहत सारा धन हो पर अंदर से सदैव चिंता और व्याकुलता ही रहेगी| अपनी वाणी के द्वारा दादाजी ने हमें पैसों के मामले में खड़े होने वाले संघर्षों से कैसे मुक्त हो और किस प्रकार बिना किसी मनमुटाव के और ईमानदारी से, अपना पैसों से संबंधित व्यवहार पूरा करे इसका वर्णन किया है जो हम इस किताब में पढ़ सकते है|
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पैसों का व्यवहार - Dada Bhagwan
दादा भगवान कौन ?
जून 1958 की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर ‘दादा भगवान’ पूर्ण रूप से प्रकट हुए और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घंटे में उन्हें विश्वदर्शन हुआ। ‘मैं कौन? भगवान कौन? जगत् कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?’ इत्यादि जगत् के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सम्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजी भाई पटेल, गुजरात के चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कॉन्ट्रैक्ट का व्यवसाय करनेवाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष!
‘व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं’, इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसीके पास से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घंटों में अन्य मुमुक्षुजनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात् बिना क्रम के, और क्रम अर्थात् सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढऩा। अक्रम अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट।
वे स्वयं प्रत्येक को ‘दादा भगवान कौन?’ का रहस्य बताते हुए कहते थे कि ‘‘यह जो आपको दिखते हैं वे दादा भगवान नहीं हैं, वे तो ‘ए.एम.पटेल’ हैं। हम ज्ञानीपुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे ‘दादा भगवान’ हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और ‘यहाँ’ हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।’’
निवेदन
ज्ञानी पुरुष संपूज्य दादा भगवान के श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहारज्ञान से संबंधित जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता है। विभिन्न विषयों पर निकली सरस्वती का अद्भुत संकलन इस पुस्तक में हुआ है, जो नए पाठकों के लिए वरदान रूप साबित होगा।
प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ध्यान रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो, जिसके कारण शायद कुछ जगहों पर अनुवाद की वाक्य रचना हिन्दी व्याकरण के अनुसार त्रुटिपूर्ण लग सकती है, लेकिन यहाँ पर आशय को समझकर पढ़ा जाए तो अधिक लाभकारी होगा।
प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाए गए शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गए वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गए हैं। जबकि कुछ जगहों पर अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ के रूप में रखे गए हैं। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों इटालिक्स में रखे गए हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालांकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द अर्थ के रूप में, कोष्ठक में और पुस्तक के अंत में भी दिए गए हैं।
ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है।
अनुवाद से संबंधित कमियों के लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हैं।
समर्पण
चैन कहीं ना मिले इस कलिकाल में,
आगमन लक्ष्मी का, बेचैनी दिन-रात में।
पेट्रोल नहीं पर आर.डी.एक्स की ज्वाला में,
पानी नहीं, उबल रहा लहु संसार में।
धर्म में लक्ष्मी का हो गया व्यापार है,
हर ओर चल रहा काला बाज़ार है।
उबाल चहुँ ओर, काल यह विकराल है,
बचाओ, बचाओ, सर्वत्र यह पुकार है।
ज्ञानीपुरुष की सम्यक् समझ ही उबार है,
निर्लेप रखती सभी को, पैसों के व्यवहार में।
संक्षिप्त समझ यहाँ हुई शब्दस्थ है,
आदर्श धन व्यवहार की सौरभ बहे संसार में।
अद्भूत बोधकला ‘दादा’ के व्यवहार में,
समर्पित है जग तुझ चरण-कमल में।
-डॉ. नीरू बहन अमीन
संपादकीय
‘अणहक्क के (बिना हक़ का) विषय नर्क में ले जाएँ।’
‘अणहक्क की लक्ष्मी तिर्यंच में (पशुयोनि में) ले जाएँ।’
- दादाश्री
संस्कारी घरों में हराम के विषय संबंधी जागृति कई जगहों पर प्रवर्तमान है लेकिन हराम की लक्ष्मी संबंधित जागृति का मिलना बहुत मुश्किल है। हक़ और हराम की लक्ष्मी की सीमा हो ऐसा नहीं है, उसमें भी इस भीषण कलिकाल में!
परम ज्ञानीपुरुष दादाश्री ने अपनी स्याद्वाद देशना में आत्मधर्म के सर्वोत्तम चोटी के सभी स्पष्टीकरण दिए हैं, इतना ही नहीं, लेकिन व्यवहार धर्म के भी उतने ही उच्च स्पष्टीकरण दिए हैं। जिससे निश्चय और व्यवहार, इन दोनों पंखों से समानान्तर मोक्षमार्ग पर उड़ा जा सके! इस काल में व्यवहार में यदि सब से विशेष प्राधान्य मिला हो तो वह सिर्फ पैसों को! और उन पैसों का व्यवहार जब तक आदर्शता को प्राप्त नहीं होता, तब तक व्यवहार शुद्धि संभव नहीं है। और जिसका व्यवहार दूषित हुआ, उसका निश्चय दूषित हुए बिना रहेगा ही नहीं! इसलिए पैसों के संपूर्ण दोष रहित व्यवहार का, इस काल को लक्ष्य में रखकर, पूज्यश्री ने सुंदर विश्लेषण किया है। और ऐसा संपूर्ण दोष रहित और आदर्श लक्ष्मी का व्यवहार आपश्री के जीवन में देखने को मिला है, महा-महा पुण्यशालियों को!
धर्म में, व्यापार में, गृहस्थ जीवन में, लक्ष्मी को लेकर स्वयं शुद्ध रहकर आपश्री ने संसार को एक अनोखे आदर्श का दर्शन करवाया। आपश्री का सूत्र, ‘व्यापार में धर्म होना चाहिए मगर धर्म में व्यापार नहीं होना चाहिए’ यहाँ, दोनों की आदर्शता बताई है! आपश्री ने अपने जीवन में निजी इक्स्पेन्स (खर्च) के लिए कभी किसी का एक पैसा भी स्वीकार नहीं किया। खुद के पैसे खर्च कर गाँव-गाँव सत्संग देने जाते, फिर चाहे ट्रेन से हो या प्लेन से हो! करोड़ों रुपये, सोने के अलंकार, आपश्री के आगे भाविकों ने रख दिए लेकिन आपश्री ने उनको छुआ तक नहीं। दान देने की जिन्हें बहुत ही उत्कट इच्छा होती है, उन लोगों को लक्ष्मी सही रास्तों पर, मंदिर में या लोगों को भोजन कराने में व्यय करने की सलाह देते थे। और वह भी उस व्यक्ति की निजी आमदनी की जानकारी उनसे और उनके कुटुम्बीजनों से पूरी तरह से जान लेने के बाद, सभी की रज़ामंदी है, ऐसा जानने के बाद ‘हाँ’ कहते!
संसार व्यवहार में पूर्णतया आदर्श रहनेवाला, संपूर्ण वीतराग पुरुष जैसा आज तक दुनिया ने देखा नहीं, ऐसा पुरुष इस काल में देखने को मिला। उनकी वीतराग वाणी सहज प्राप्य हुई। व्यावहारिक जीवन में निर्वाह के लिए लक्ष्मी प्राप्ति अनिवार्य है, फिर वह नौकरी करके या व्यवसाय करके या फिर अन्य किसी तरीके से हो, लेकिन कलियुग में व्यवसाय करते हुए भी वीतरागों की राह पर किस तरह चला जाए, उसका अचूक मार्ग पूज्यश्री ने अपने अनुभव के निष्कर्ष द्वारा प्रकट किया है। दुनिया ने कभी देखा तो क्या, कभी सुना भी नहीं होगा, ऐसा बेजोड़ साझेदारी का ‘रोल’ उन्होंने दुनिया को दिखाया। आदर्श शब्द भी वहाँ वामन प्रतीत होता है क्योंकि ‘आदर्श’, वह तो सामान्य मनुष्यों द्वारा अनुभव के आधार पर तय की हुई चीज़, जब कि पूज्यश्री का जीवन तो अपवाद रूप आश्चर्य है!
व्यवसाय में साझेदारी, छोटी उम्र से, 22 साल की उम्र से ही जिनके साथ साझेदारी की, तो अंत तक उनकी संतानों के साथ भी आदर्श प्रणाली से उन्होंने यह साझेदारी निभाई। कान्ट्रैक्ट के व्यवसाय में लाखों की आमदनी करते, लेकिन नियम उनका यह था कि नॉन-मैट्रिक की पढ़ाई के साथ यदि वे खुद नौकरी करते तो कितनी तनख्वाह मिलती? पाँच सौ अथवा छ: सौ। इसलिए उतने ही पैसे घर में आने देने चाहिए बाकी के व्यवसाय में रखने चाहिए, जिससे घाटे के समय में काम आए! और सारा जीवन इस नियम को पकड़े रखा! साझेदार के वहाँ बेटे-बेटियों की शादी हो उसका खर्च भी आपश्री फिफ्टी-फिफ्टी पार्टनरशीप में करते! ऐसी आदर्श साझेदारी वल्र्ड में कहाँ देखने को मिलेगी?
पूज्यश्री ने व्यवसाय आदर्श रूप से, बेज़ोड़ तरीके से किया, फिर भी चित्त तो आत्मा प्राप्त करने में ही था। 1958 में ज्ञानप्राप्ति के उपरांत भी कई सालों तक व्यवसाय चलता रहा। लेकिन खुद आत्मा में और मन-वचन-काया, जगत् को आत्मा प्राप्त कराने हेतु गाँव-गाँव, संसार के कोने कोने में पर्यटन करने में व्यतित किया। वह कैसी अलौकिक दृष्टि प्राप्त हुई कि जीवन में, व्यापार-व्यवहार और अध्यात्म दोनों ‘एट-ए-टाइम’ (एक ही समय) सिद्धि के शिखर पर रहकर संभव हुआ?
लोक संज्ञा का प्राधान्य लक्ष्मी ही है, पैसा ही ग्यारहवाँ प्राण माना जाता है। वह प्राण समान पैसों का व्यवहार