प्रतिक्रमण (In Hindi)
By Dada Bhagwan
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इंसान हर कदम पर कोई ना कोई गलती करता है जिससे दूसरों को बहुत दुःख होता है| जिसे मोक्ष प्राप्त करना है, उसे यह सभी राग-द्वेष के हिसाबो से मुक्त होना होगा| इसका सबसे आसान तरीका है अपने द्वारा किये गए पापों का प्रायश्चित करना या माफ़ी माँगना| ऐसा करने के लिए तीर्थंकरों ने हमें बहुत ही शक्तिशाली हथियार दिया है जिसका नाम है ‘प्रतिक्रमण’| प्रतिक्रमण मतलब, हमारे द्वारा किये गए अतिक्रमण को धो डालना| ज्ञानी पुरुष दादा भगवान ने हमें आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान की चाबी दी है जिससे हम अतिक्रमण से मुक्त हो सकते है| आलोचना का अर्थ होता है- अपनी गलती का स्वीकार करना, प्रतिक्रमण मतलब उस गलती के लिए माफ़ी माँगना और प्रत्याख्यान करने का अर्थ है- दृढ़ निश्चय करना कि ऐसी गलती दोबारा ना हो| इस पुस्तक में हमें हमारे द्वारा किये गए हर प्रकार के अतिक्रमण से कैसे मुक्त हो सके इसका रास्ता मिलता है|
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प्रतिक्रमण (In Hindi) - Dada Bhagwan
www.dadabhagwan.org
दादा भगवान प्ररुपित
प्रतिक्रमण
मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरू बहन अमीन
अनुवाद : महात्मागण
प्रकाशक : श्री अजीत सी. पटेल
दादा भगवान विज्ञान फाउन्डेशन ,१,वरुण अपार्टमेन्ट, 37,श्रीमाली सोसायटी
नवरंगपुरा पुलिस स्टेशन के सामने,
नवरंगपुरा, अहमदाबाद - ३८०००९, गुजरात.
Gujarat,India.
फोन :+91 7935002100
© Dada Bhagwan Foundation,
5, Mamta Park Society, B\h. Navgujarat College,
Usmanpura, Ahmedabad -380014, Gujarat, India.
Email : info@dadabhagwan.org
Tel : + 91 79 3500 2100
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प्रथम संस्करण : २०००, प्रतियाँ, जूलाई, २००७
रीप्रिन्ट : २७०००, प्रतियाँ, दिसम्बर, २००७ से दिसम्बर, २०१७
नई रीप्रिन्ट : २०००, प्रतियाँ, फरवरी, २०१८
भाव मूल्य : ‘परम विनय’ और‘मैं कुछ भी नहीं जानता’, यह भाव!
मुद्रक :अंबा मल्टीप्रिन्ट
B-99, इलेक्ट्रॉनिक्स GIDC,
क-6 रोड, सेक्टर-25,
गांधीनगर-382044.
Gujarat, India.
फोन : +91 79 3500 2142
दादा भगवान कौन ?
जून 1958 की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर ‘दादा भगवान’ पूर्ण रूप से प्रकट हुए और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घंटे में उन्हें विश्वदर्शन हुआ। ‘मैं कौन? भगवान कौन? जगत् कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?’ इत्यादि जगत् के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सम्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजी भाई पटेल, गुजरात के चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कॉन्ट्रैक्ट का व्यवसाय करनेवाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष!
‘व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं’, इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसीके पास से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घंटों में अन्य मुमुक्षुजनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात् बिना क्रम के, और क्रम अर्थात् सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढऩा। अक्रम अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट।
वे स्वयं प्रत्येक को ‘दादा भगवान कौन?’ का रहस्य बताते हुए कहते थे कि ‘‘यह जो आपको दिखते हैं वे दादा भगवान नहीं हैं, वे तो ‘ए.एम.पटेल’ हैं। हम ज्ञानीपुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे ‘दादा भगवान’ हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और ‘यहाँ’ हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।’’
निवेदन
ज्ञानी पुरुष संपूज्य दादा भगवान के श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहारज्ञान से संबंधित जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता है। विभिन्न विषयों पर निकली सरस्वती का अद्भुत संकलन इस पुस्तक में हुआ है, जो नए पाठकों के लिए वरदान रूप साबित होगा।
प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ध्यान रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो, जिसके कारण शायद कुछ जगहों पर अनुवाद की वाक्य रचना हिन्दी व्याकरण के अनुसार त्रुटिपूर्ण लग सकती है, लेकिन यहाँ पर आशय को समझकर पढ़ा जाए तो अधिक लाभकारी होगा।
प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाए गए शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गए वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गए हैं। जबकि कुछ जगहों पर अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ के रूप में रखे गए हैं। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों इटालिक्स में रखे गए हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालांकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द अर्थ के रूप में, कोष्ठक में और पुस्तक के अंत में भी दिए गए हैं।
ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है।
अनुवाद से संबंधित कमियों के लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हैं।
समर्पण
अतिक्रमणों की अनंत फुहार;
कर्मों के बनते पल-पल हार!
मोक्ष तो क्या, पर धर्म भी निराधार;
कौन राहबर ले जाए उस राह?
अक्रम विज्ञानी दादा तारणहार;
प्रतिक्रमण का दिया हथियार!
मोक्ष मार्ग का सच्चा साथीदार;
ताज बनकर शोभित दादा दरबार!
‘प्रतिक्रमण’ संक्षिप्त है क्रियाकारी;
तुड़ाए बंधन मूल अहंकारी!
प्रतिक्रमण विज्ञान हुआ यहाँ साकार;
‘समर्पण’ जग को, मचाओ जय जयकार!
संपादकीय
हृदयपूर्वक मोक्षमार्ग पर जानेवालों को, पल पल सताते कषायों को खत्म करने के लिए, मार्ग पर आगे बढऩे के लिए, कोई अचूक साधन तो चाहिए या नहीं चाहिए? स्थूलतम से सूक्ष्मतम टकराव कैसे टालें? हमें या हम से अन्यों को दु:ख हो तो उसका निवारण क्या है? कषायों की बमबारी को रोकने के लिए या वे फिर से नहीं हों, उसके उपाय क्या हैं? इतना धर्म किया, जप, तप, व्रत, ध्यान, योगादि किए, फिर भी मन-वचन-काया से होनेवाले दोष क्यों नहीं रुकते? अंतरशांति क्यों नहीं होती? कभी निज दोष दिखाई दें, उसके बाद उसके लिए क्या करें? उन्हें किस प्रकार हटाएँ? मोक्षमार्ग पर आगे बढऩे, और संसार मार्ग में भी सुख-शांति, मंद कषाय और प्रेमभाव से जीने के लिए कोई ठोस साधन तो होना चाहिए न? वीतरागों ने धर्मसार में जगत् को क्या सिखाया है? वास्तव में धर्मध्यान कौन सा है? पाप से वापस लौटना हो तो उसका कोई अचूक मार्ग है क्या? अगर है तो नज़र क्यों नहीं आता?
धर्मशास्त्रों में से बहुत कुछ पढ़ा जाता है, फिर भी वह जीवन में आचरण में क्यों नहीं आता? साधु, संत, आचार्य, कथाकार इतने उपदेश देते हैं फिर भी क्या कमी रह जाती है, उसे चरितार्थ करने में? प्रत्येक धर्म में, प्रत्येक साधु-संतों की जमातों में कितनी ही क्रियाएँ होती हैं? कितने व्रत, जप, तप, नियम हो रहे हैं, फिर भी क्यों फलदायी नहीं होते? कषाय क्यों कम नहीं होते? दोषों का निवारण क्यों नहीं होता? क्या इसकी ज़िम्मेदारी गद्दी पर बैठे उपदेशकों की नहीं है? ऐसा जो लिखा गया, वह द्वेष या बैरभाव से नहीं लेकिन करूणाभाव से है, फिर भी उसे धोने के लिए कोई उपाय है या नहीं? अज्ञान दशा में से ज्ञान दशा और अंतत: केवलज्ञान स्वरूप दशा तक पहुँचने के लिए ज्ञानियों ने, तीर्थंकरों ने क्या निर्देश दिया होगा? ऋणानुबंधवाले व्यक्तियों के साथ राग या द्वेष के बंधनों से मुक्त होकर वीतरागता कैसे प्राप्त हो?
‘मोक्ष का मार्ग है वीर का, नहीं है कायर का काम’ लेकिन वीरता कहाँ इस्तेमाल करें ताकि जल्दी मोक्ष तक पहुँचें? कायरता किसे कहेंगे? पापी पुण्यशाली हो सकते हैं? वह कैसे?
पूरी ज़िंदगी जल गई इस आर.डी.एक्स की अगन में, उसे कैसै बुझाएँ? रात-दिन पत्नी का प्रभाव, पुत्र-पुत्रियों का ताप और पैसे कमाने का उत्पात-इन सभी तापों से कैसे शाता प्राप्त करके नैया पार उतारें?
गुरु-शिष्यों के बीच, गुरुमाताओं और शिष्यायों के बीच, निरंतर कषायों के फेरे में पड़े हुए उपदेशक कैसे लौट सकते हैं? अणहक्क की लक्ष्मी और अणहक्क की स्त्रियों के पीछे मन-वचन-वर्तन या दृष्टि से दोष हो जाएँ तो उसका तिर्यंच अथवा नर्कगति के सिवा कहाँ स्थान हो सकता है? उनसे कैसे मुक्त हों? उसमें सचेत रहना हो तो कैसे रह सकते हैं और कैसे मुक्त हो सकते हैं? ऐसे अनेक उलझन भरे सनातन प्रश्नों का हल क्या हो सकता है?
प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनकाल के दौरान कभी-कभी संयोगों के दबाव में ऐसी परिस्थिति में फँस जाता है कि भूलें नहीं करनी हों, फिर भी संसार व्यवहार में भूलों से मुक्त नहीं हो पाता, ऐसी परिस्थिति में दिल के सच्चे पुरुष लगातार उलझन में रहते हैं कि भूलों से छुटकारा पाने का और जीवन जीने का सच्चा मार्ग मिल जाए, ताकि वे अपने आंतरिक सुख-चैन में रहकर प्रगति कर सकें। उसके लिए कभी भी प्राप्त नहीं हुआ हो ऐसा अध्यात्म विज्ञान का एकमात्र अचूक आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान रूपी हथियार तीर्थंकरों ने, ज्ञानियों ने जगत् को अर्पण किया है। इस हथियार द्वारा विकसित दोषरूपी विशाल वृक्ष को मुख्य जड़ समेत निर्मूल करके अनंत जीव मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त कर सके हैं। ऐसे मुक्ति देनेवाले इस प्रतिक्रमण रूपी विज्ञान का यथार्थरूप से ज्यों का त्यों प्रकट ज्ञानीपुरुष श्री दादा भगवान ने केवलज्ञान स्वरूप में देखकर कही गई वाणी द्वारा किया है, जो प्रस्तुत ग्रंथ में संकलित हुई है, ये सारी बातें सुज्ञ पाठक के आत्यंतिक कल्याण के लिए उपयोगी सिद्ध होंगी।
ज्ञानीपुरुष की वाणी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव तथा भिन्न-भिन्न निमित्तों के अधीन निकली हुई है, उस वाणी के संकलन में भासित क्षतियों को क्षम्य मानकर ज्ञानीपुरुष की वाणी का अंतर आशय प्राप्त करें यही अभ्यर्थना!
ज्ञानीपुरुष की जो वाणी निकली है, वह नैमित्तिक रूप से जो मुमुक्षु-महात्मा सामने आए, उनके समाधान के लिए निकली होती है और वह वाणी जब ग्रंथरूप में संकलित हो, तब कभी कुछ विरोधाभास लग सकता है। जैसे कि एक प्रश्नकर्ता की