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Bhikarin Aur Vidaa: Do Kahaniya
Bhikarin Aur Vidaa: Do Kahaniya
Bhikarin Aur Vidaa: Do Kahaniya
Ebook55 pages29 minutes

Bhikarin Aur Vidaa: Do Kahaniya

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About this ebook

कन्या के पिता के लिए धैर्य धरना थोड़ा-बहुत संभव भी था; परन्तु वर के पिता पल भर के लिए भी सब्र करने को तैयार न थे। उन्होंने समझ लिया था कि कन्या के विवाह की आयु पार हो चुकी है; परन्तु किसी प्रकार कुछ दिन और भी पार हो गये तो इस चर्चा को भद्र या अभद्र किसी भी उपाय से दबा रखने की क्षमता भी समाप्त हो जायेगी?

Languageहिन्दी
Release dateJun 4, 2017
Bhikarin Aur Vidaa: Do Kahaniya

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    Bhikarin Aur Vidaa - Rabindranath Tagore

    भिखारिन

    और

    विदा

    रवींद्रनाथ टैगोर

    साँई ईपब्लिकेशंस

    सर्वाधिकार सुरक्षित। यह पुस्तक या इसका कोई भी भाग लेखक या प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना इलैक्ट्रॉनिक या यान्त्रिक (जिसमे फोटोकॉपी रिकार्डिंग भी सम्मिलित है) विधि से या सूचना संग्रह तथा पुनः प्राप्ति-पद्धति (रिट्रिवल) द्वारा किसी भी रूप में पुनः प्रकाशित अनूदित या संचारित नहीं किया जा सकता।

    — प्रकाशक

    भिखारिन और विदा

    रवींद्रनाथ टैगोर

    © साँई ईपब्लिकेशंस

    प्रकाशक: साँई ईपब्लिकेशंस

    All rights reserved. No part of this material may be reproduced or transmitted in any form, or by any means electronic or mechanical, including photocopy, recording, or by any information storage and retrieval system without the written permission of the publisher, except for inclusion of brief quotations in a review.

    — Publisher

    Bhikarin Aur Vidaa

    Rabindranath Tagore

    © Sai ePublications

    Published by: Sai ePublications

    Digital edition produced by Sai ePublications

    अनुक्रमणिका

    शीर्षक पृष्ठ

    सर्वाधिकार और अनुमतियाँ

    भिखारिन

    विदा

    लेखक परिचय

    भिखारिन

    1

    अन्धी प्रतिदिन मन्दिर के दरवाजे पर जाकर खड़ी होती, दर्शन करने वाले बाहर निकलते तो वह अपना हाथ फैला देती और नम्रता से कहती- बाबूजी, अन्धी पर दया हो जाए।

    वह जानती थी कि मन्दिर में आने वाले सहृदय और श्रध्दालु हुआ करते हैं। उसका यह अनुमान असत्य न था। आने-जाने वाले दो-चार पैसे उसके हाथ पर रख ही देते। अन्धी उनको दुआएं देती और उनको सहृदयता को सराहती। स्त्रियां भी उसके पल्ले में थोड़ा-बहुत अनाज डाल जाया करती थीं।

    प्रात: से संध्या तक वह इसी प्रकार हाथ फैलाए खड़ी रहती। उसके पश्चात् मन-ही-मन भगवान को प्रणाम करती और अपनी लाठी के सहारे झोंपड़ी का पथ ग्रहण करती। उसकी झोंपड़ी नगर से बाहर थी। रास्ते में भी याचना करती जाती किन्तु राहगीरों में अधिक संख्या श्वेत वस्त्रों वालों की होती, जो पैसे देने की अपेक्षा झिड़कियां दिया करते हैं। तब भी अन्धी निराश न होती और उसकी याचना बराबर जारी रहती। झोंपड़ी तक पहुंचते-पहुंचते उसे दो-चार पैसे और मिल जाते।

    झोंपड़ी के समीप पहुंचते ही एक दस वर्ष का लड़का उछलता-कूदता आता और उससे चिपट जाता। अन्धी टटोलकर उसके मस्तक को चूमती।

    बच्चा कौन है? किसका है? कहां से आया? इस बात से कोई परिचय नहीं था। पांच वर्ष हुए पास-पड़ोस वालों ने उसे अकेला देखा था। इन्हीं दिनों एक दिन संध्या-समय लोगों ने उसकी गोद में एक बच्चा देखा, वह रो रहा था, अन्धी उसका मुख चूम-चूमकर उसे चुप कराने का प्रयत्न कर रही थी। वह कोई असाधारण घटना न थी, अत:

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