चिंगारियाँ
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‘चिंगारियां’ कविता संग्रह की अधिकतर कविताएँ मौजूदा परिवेश को रेखांकित करती हिंदी कविता के समकालीन परिदृश्य में एक सार्थक हस्तक्षेप करती हैं। फिर चाहे फरीद खान हों, कुशेश्वर महतो हों, डॉ राकेश पाठक हों, राजेंद्र श्रीवास्तव हों, विजय कांत वर्मा हों, शरद कोकास हों, विजय राठौर हों या हीरालाल नागर हों। संवेदना, अभिव्यक्ति और काव्य का ओर-छोर छूती उनकी मौलिक पहचान कराती ये कविताएँ। भरपूर है इन कविताओं का सार्थक स्वरूप।
‘चिंगारियां’ कविता संग्रह की अधिकतर कविताएँ मौजूदा परिवेश को रेखांकित करती हिंदी कविता के समकालीन परिदृश्य में एक सार्थक हस्तक्षेप करती हैं। फिर चाहे फरीद खान हों, कुशेश्वर महतो हों, डॉ राकेश पाठक हों, राजेंद्र श्रीवास्तव हों, विजय कांत वर्मा हों, शरद कोकास हों, विजय राठौर हों या हीरालाल नागर हों। संवेदना, अभिव्यक्ति और काव्य का ओर-छोर छूती उनकी मौलिक पहचान कराती ये कविताएँ। भरपूर है इन कविताओं का सार्थक स्वरूप।
वर्जिन साहित्यपीठ
सम्पादक के पद पर कार्यरत
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चिंगारियाँ - वर्जिन साहित्यपीठ
साझा काव्य संकलन
चिंगारियाँ
संपादक
संतोष श्रीवास्तव
वर्जिन साहित्यपीठ
प्रकाशक
वर्जिन साहित्यपीठ
78ए, अजय पार्क, गली नंबर 7, नया बाजार,
नजफगढ़, नयी दिल्ली 110043
9868429241 / sonylalit@gmail.com
सर्वाधिकार सुरक्षित
प्रथम संस्करण - अगस्त 2018
कॉपीराइट © 2018
वर्जिन साहित्यपीठ
कॉपीराइट
इस प्रकाशन में दी गई सामग्री कॉपीराइट के अधीन है। इस प्रकाशन के किसी भी भाग का, किसी भी रूप में, किसी भी माध्यम से - कागज या इलेक्ट्रॉनिक - पुनरुत्पादन, संग्रहण या वितरण तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक वर्जिन साहित्यपीठ द्वारा अधिकृत नहीं किया जाता। सामग्री के संदर्भ में किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में जिम्मेदारी लेखक की रहेगी।
समकालीन परिदृश्य में सार्थक हस्तक्षेप
‘चिंगारियां’ कविता संग्रह की अधिकतर कविताएँ मौजूदा परिवेश को रेखांकित करती हिंदी कविता के समकालीन परिदृश्य में एक सार्थक हस्तक्षेप करती हैं। फिर चाहे फरीद खान हों, कुशेश्वर महतो हों, डॉ राकेश पाठक हों, राजेंद्र श्रीवास्तव हों, विजय कांत वर्मा हों, शरद कोकास हों, विजय राठौर हों या हीरालाल नागर हों। संवेदना, अभिव्यक्ति और काव्य का ओर-छोर छूती उनकी मौलिक पहचान कराती ये कविताएँ। भरपूर है इन कविताओं का सार्थक स्वरूप।
ये कविताएँ किसी एक विषय में न सिमटकर समग्रता को शब्द और भावभूमि प्रदान करती हैं। इधर पिछले दशकों में कवयित्रियों ने साहित्य में जो मुकाम हासिल किया है इस संग्रह में शुमार कवयित्रियों के बरक्स कहना पड़ेगा मर्हबा.......
रीता दास राम, मधु सक्सेना, पूजा आहूजा कालरा, प्रमिला वर्मा, पूनम भार्गव जाकिर, रुपेंद्र राज तिवारी की कविताएँ काव्य भूमि में स्तरीय दखल रखती हैं। इन कविताओं में उनके अनुभवों की पारदर्शिता और ताप दोनों समाहित हैं। संयोग-वियोग समाज के प्रत्येक कोने की पड़ताल.....जीवंत स्पर्श सा लगता है। सघनता, अभिप्साएं, शिकायतें, जख्म, कसक और आत्म सजगता के हर सूत्र को थामे कविताएँ कब कितना कुछ कह जाती हैं पता ही नहीं चलता।
वर्जिन साहित्यपीठ के सर्वेसर्वा ललित कुमार मिश्र जी ने जब इस संग्रह के संपादन का प्रस्ताव मेरे सामने रखा तो सब कुछ मेरी पसंद और मूड पर छोड़ दिया। कवियों का चयन, उनकी कविताओं का चयन, संग्रह का शीर्षक, पृष्ठ संख्या - सब कुछ की मेरी जिम्मेवारी। इस संग्रह को संपादित करती मैं अद्भुत एहसास से गुजरी, बल्कि मैंने इस सबको एंजॉय किया।
आभारी हूं ललित कुमार मिश्र जी की इस अवसर के लिए।
संतोष श्रीवास्तव
9769023188
फरीद खान
kfaridbaba@gmail.com
पटना में पले बढ़े। उर्दू साहित्य में एम ए।
लगभग 12 सालों तक पटना इप्टा में रंगकर्म।
भारतेंदु नाट्य अकादमी, लखनऊ से दो साल का डिप्लोमा।
अभी मुम्बई फ़िल्म और टेलीविज़न में कथा-पटकथा लेखक के तौर पर पेशेवर लेखन।
अफ़वाह - 1
हर बस्ती में अफ़वाहों के तालाब के लिए
छोटे बड़े गड्ढे होते हैं।
पहले बादलों के फाहे की तरह
ऊपर से गुजरती है अफ़वाह,
थोड़ी बूँदा बाँदी करती हुई।
फिर अफ़वाहों का घना बादल आता है
और पूरी बस्ती सराबोर हो जाती है।
छतों, छप्परों और दीवारों को भिगोते हुए
छोटी से छोटी नालियों से गुज़रते हुए
अफ़वाह इकट्ठी होती है
नदी, तालाब, झीलों में।
कई शहरों में तो पीने के लिए भी
सप्लाई की जाती है
इन झीलों की अफ़वाह।
अफ़वाह - 2
अफ़वाहें कर रही हैं नेतृत्व।
लाल किले पर फहराई जाती हैं अफ़वाह
और मिठाई बांटी जाती है लोगों में।
कल ही संसद में पेश की गई एक अफ़वाह
दो तीन दिन बहस होगी उस पर
फिर पारित हो जाएगा क़ानून बनकर।
पुरातत्ववेत्ताओं ने खुदाई से
निकाल कर दी हैं अफ़वाहें।
संग्रहालय में रखी हैं अफ़वाहों की तोप-तलवारें।
स्कूलों का उसी से बना है पाठ्यक्रम।
उसी से बनी है प्रार्थनाएँ।
कक्षा में भूगोल का शिक्षक
ब्लैक बोर्ड पर लकीरें खींच कर
बनाता है अलग अलग अफ़वाहों के मानचित्र।
चिंतन समिति बड़ी मेहनत
और लगन से तैयार करती है
अफ़वाहों का ड्राफ़्ट।
अफ़वाहों पर विस्तार से होती हैं बातें।
समाज में फैलाई जाती है उनके प्रति जागरुकता।
मुहल्लों में बनाए जाते हैं
इस पार, उस पार।
दुश्मनों को देख नसों में रक्त का प्रवाह तेज़ हो,
सरहदों पर लगाए जाते हैं अफ़वाहों के कंटीले तार।
अफ़वाहों की पलटन
अफ़वाहों की पलटन उतरी।
उसने घेर लिया पूरे मुहल्ले को।
रात का सन्नाटा और
दरवाज़े पर लगाते हुए निशान
अफ़वाहें खटखटा रही थीं
लोकतंत्र का मकान।
नींद बहुत गहरी थी लोगों की।
सुबह जब वे उठे,
वे घिर चुके थे अफ़वाहों से।
अफ़वाहों के प्रवक्ता
एक अच्छे अमानवीय शासन में ही
स्थापित की जा सकती हैं
आफ़वाहों की ऊँची ऊँची प्रतिमाएँ,
जो घृणा के बिना संभव नहीं है।
ख़ून पसीना एक करना होता है,
त्याग करना होता है।
झोला लेकर नगरी नगरी
द्वारे द्वारे घूमना होता है।
घृणा से प्रेम का परिवेश
निर्माण करना होता है।
अफ़वाहों की स्थापना के लिए
एक कर्तव्यपरायण घृणित समाज का
निर्माण करना होता है।
मित्रों के रूप में आते हैं
अफ़वाहों के प्रवक्ता।
शिक्षक के रूप में भी आते हैं।
मुहल्ले के बुज़ुर्ग के रूप में भी आते हैं।
सभी हितैषी समझाते हैं
लाभ और हानि अफ़वाहों के।
टीवी में भी दिखाई जाती हैं अफ़वाहें,
लेकिन ठीक उसके पहले
घृणा का एक स्लॉट होता है।
मास मीडिया के ऊर्जावान नौजवान
बड़ी मशक्कत से घृणा की ख़बरें लाते हैं।
माफ़ी
सबसे पहले मैं माफ़ी मांगता हूँ हज़रत हौव्वा से
मैंने ही अफ़वाह उड़ाई थी कि
उसने आदम को बहकाया था
और उसके मासिक धर्म की पीड़ा
उसके गुनाहों की सज़ा है
जो रहेगी सृष्टि के अंत तक
मैंने ही बोये थे बलात्कार के
सबसे प्राचीनतम बीज
मैं माफ़ी माँगता हूँ
उन तमाम औरतों से
जिन्हें मैंने पाप योनी में जन्मा हुआ घोषित करके
अज्ञान की कोठरी में धकेल दिया
और धरती पर कब्ज़ा कर लिया
और राजा बन बैठा
और वज़ीर बन बैठा
और द्वारपाल बन बैठा
मेरी ही शिक्षा थी यह बताने की
कि औरतें रहस्य होती हैं
ताकि कोई उन्हें समझने की
कभी कोशिश भी न करे
कभी कोशिश करे भी तो डरे,
उनमें उसे चुड़ैल दिखे
मैं माफ़ी मांगता हूँ
उन तमाम राह चलते उठा ली गईं औरतें से
जो उठा कर ठूंस दी गईं हरम में
मैं माफ़ी मांगता हूँ उन औरतों से
जिन्हें मैंने मजबूर किया सती होने के लिए
मैंने ही गढ़े थे वे पाठ कि
द्रौपदी के कारण ही हुई थी महाभारत
ताकि दुनिया के सारे मर्द
एक होकर घोड़ों से रौंद दें उन्हें
जैसे रौंदी है मैंने धरती
मैं माफ़ी मांगता हूँ उन आदिवासी औरतों से भी
जिनकी योनि में हमारे राष्ट्र भक्त सिपाहियों ने घुसेड़ दी थी बन्दूकें
वह मेरा ही आदेश था
मुझे ही जंगल पर कब्ज़ा करना था
औरतों के जंगल पर
उनकी उत्पादकता को मुझे ही करना था नियंत्रित
मैं माफ़ी मांगता हूँ निर्भया से
मैंने ही बता रखा था कि
देर रात घूमने वाली लड़की बदचलन होती है
और किसी लड़के के साथ घूमने वाली लड़की तो निहायत ही बदचलन होती है
वह लोहे का सरिया मेरा ही था
मेरी संस्कृति की सरिया
मैं माफ़ी मांगता हूँ आसिफ़ा से
जितनी भी आसिफ़ा हैं इस देश में
उन सबसे माफ़ी मांगता हूँ
जितने भी उन्नाव हैं इस देश में,
जितने भी सासाराम हैं इस देश में,
उन सबसे माफ़ी मांगता हूँ
मैं माफ़ी मांगता हूँ अपने शब्दों
और अपनी उन मुस्कुराहटों के लिए
जो औरतों का उपहास करते थे
मैं माफ़ी मांगता हूँ
अपनी माँ को जाहिल समझने के लिए
बहन पर बंदिश लगाने के लिए
पत्नी का मज़ाक उड़ाने के लिए
मैं