वेदों का सर्व-युगजयी धर्म : वेदों की मूलभूत अवधारणा
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जैसे पदार्थ एवं उर्जा को अलग-अलग अविनाशी एवं मात्र रूप बदलने वाला माना गया था परन्तु ये सापेक्षता (रिलेटिविटी) के सिद्धांत द्वारा सम्बद्ध कर दिए गए, उसी प्रकार अचेतन एवं चेतन को भी वेद-ज्ञान सम्बद्ध कर देता है । अर्थात् चेतन को अचेतन और अचेतन को चेतन में परिवर्तित किया जा सकता है । यह वेदों के प्रयोग से संभव है । जैसे पदार्थ को उर्जा में बदलने के लिए एक परमाणु बम में क्रांतिक मात्रा में रेडियो-एक्टिव पदार्थ चाहिए, वैसे ही अचेतन को चेतन में बदलने के लिए जो संरचनाएं चाहिए उनका वर्णन वेदों में प्राप्त होता है । अधिक क्या कहें वेद मानव मात्र के कल्याण के लिए ईश्वर का अनमोल उपहार है ।
पुस्तक के मुख्य विषय १. वेद का निहितार्थ , २. वेद की मूल अवधारणा, ३. वेद के साहित्य का स्वरूप, ४. सामवेद ५.यजुर्वेद में चैतन्यानुभूति द्वारा ईश्वरानुभूति इत्यादि हैं ।
Dr. ShriKant Singh
डॉ. श्रीकान्त सिंह का जन्म ३१ मार्च १९३९ में ठाकुर रामकर्ण सिंह(जो भारत में ब्रिटिश समय में डिप्टी कलेक्टर थे ) के सुपुत्र के रूप में हुआ था । His father Thakur Ram Karan Singh was a Deputy Collector in British times and in Independent India upto 1960s. His father is given meritorious services award for restoring law & order in the freed out Ballia district (U.P.) due to rebellion and later brought back under Union Jack . He belongs to Gaharwar Kshatriy ( Rajput) caste ( to which former Prime Minister Vishvanath Pratap Singh also belonged). His native place is Jaunpur city and his village is Amihit, Kerakat, Jaunpur(U.P.), India. इन्हें शिक्षा व्यवसाय अति प्रिय था अतः स्नातकोत्तर ( प्रशिक्षण) की परीक्षा १९६४ में उत्तीर्ण करते ही तिलकधारी महाविद्यालय, जौनपुर ( अब पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर से सम्बद्ध) में १९६५ में प्रवक्ता के रूप में नियुक्त हो गए । आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से १९५८ में बी. एस. सी. ( गणित, भौतिकी, भूगर्भ शास्त्र ) की उपाधि भी प्राप्त की । आपके पास मैकेनिकल इंजीनियरिंग का ब्रिटिश स्कूल ऑफ़ इंजीनियरिंग टेक्नोलॉजी से डिप्लोमा भी था । आप शिक्षणेतर कार्य कलापों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में योग प्रतियोगिता में १९५८ में आपने तृतीय स्थान प्राप्त किया था । जीवन भर आपने योग को अपनाया । सन १९८४ में आप बयालसी डिग्री कॉलेज, जौनपुर (पु. वि. वि., जौनपुर) में प्रिंसिपल नियुक्त हुए किन्तु ३ साल की सफल सेवाओं के बाद स्वेच्छा से इस पद का परित्याग करके पुनः तिलकधारी महाविद्यालय में आ गए जहाँ से रीडर एवं हेड , प्रशिक्षण विभाग के रूप में कार्य करते हुए १९९९ में अवकाश ग्रहण किया । अत्यंत अध्यवसायी होने के कारण मृत्युपर्यन्त तक दर्शन, विज्ञान एवं वेदादि का अध्ययन, मनन एवं चिंतन करते रहे । इनका निधन २४ जुलाई २०१५ में हो गया । वेदों के अध्ययन के फलस्वरूप जो मूल ग्रन्थ ( मैनुस्क्रिप्ट) बना उसका आधा से ज्यादा काम तो करके गए थे बचे हुए भाग को उनके पुत्र इंजिनियर राम प्रताप सिंह, एसोसिएट प्रोफेसर, माइनिंग इंजीनियरिंग, आय. आय. टी. ( बी. एच. यू. ) वाराणसी ने कराया ।
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वेदों का सर्व-युगजयी धर्म - Dr. ShriKant Singh
पृष्ठभूमि
जैसे पदार्थ एवं उर्जा को अलग-अलग अविनाशी एवं मात्र रूप बदलने वाला माना गया था परन्तु ये सापेक्षता (रिलेटिविटी) के सिद्धांत द्वारा सम्बद्ध कर दिए गए, उसी प्रकार अचेतन एवं चेतन को भी वेद-ज्ञान सम्बद्ध कर देता है । अर्थात् चेतन को अचेतन और अचेतन को चेतन में परिवर्तित किया जा सकता है । यह वेदों के प्रयोग से संभव है । जैसे पदार्थ को उर्जा में बदलने के लिए एक परमाणु बम में क्रांतिक मात्रा में रेडियो-एक्टिव पदार्थ चाहिए, वैसे ही अचेतन को चेतन में बदलने के लिए जो संरचनाएं चाहिए उनका वर्णन वेदों में प्राप्त होता है । अधिक क्या कहें वेद मानव मात्र के कल्याण के लिए ईश्वर का अनमोल उपहार है । पुस्तक के मुख्य विषय १. वेद का निहितार्थ , २. वेद की मूल अवधारणा, ३. वेद के साहित्य का स्वरूप, ४. सामवेद ५.यजुर्वेद में चैतन्यानुभूति द्वारा ईश्वरानुभूति इत्यादि हैं ।
अध्याय १.
वेद का निहितार्थ - एक तात्विक विवेचन
लेखक- डॉ0 श्रीकान्त सिंह
वेद संसार में ज्ञान के सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। वे सतयुग (कृतयुग) से प्रारम्भ होकर त्रेता, द्वापर और आज कलियुग तक अक्षुण्य रूप से हमें प्राप्त होते हैं। इस प्रकार वेदों की काल गणना अत्यन्त प्राचीन है।
वेद ‘ब्रह्म' के आगार में रहते हैं ऐसा कहा गया है। अतएव वेद का सीधा सम्बन्ध 'ब्रह्म’ से है। वेद 'ब्रह्म' के नि:श्वास कहे गए है जिनके सहज श्वास श्रुतिचारी
। ये 'श्रुति' कहे जाते है क्योंकि वेद का निहितार्थ, मूल तत्व ब्रह्म से स्पष्ट रूप से शुद्ध-मनस ऋषियों को अनुभूत एवं प्राप्त हुआ। उसी अनुभूत ज्ञान को ऋषियों ने द्रष्टा रूप में ऋचाओं के माध्यम से व्यक्त किया। ये ऋग्वेद सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद की ऋचाएँ अथवा मंत्र समूह ‘संहिता’ के रूप में संग्रह की गई हैं। 'ऋक्’ का अर्थ है पाद-युक्त छन्दोबद्ध मंत्र, ‘साम’ का अर्थ है गीति या मंत्र गायन ‘यजुः’ का अर्थ है गद्यमय वाक्य ‘अथर्व’ में जीवन के व्यवहारिक जगत के विविध क्षेत्रों के मंत्रों के संग्रह हैं जो व्यवहारतः स्पष्ट होते हैं। वेद का संहिता या मंत्र भाग वैदिक देव-मण्डल के विविध देवताओं की स्तुतियों का संग्रह है। इनमें ऋक् संहिता सबसे प्राचीन है। ऋषि मंत्र के द्रष्टा हैं, अनुभवकर्ता हैं जिसे वे ऋचाओं में व्यक्त करते हैं। इस अनुभव अथवा 'दृष्टि' का मूल तत्व क्या है इसी का विवेचन करना इस लेख का अभिप्राय है। इसी से वेदों के निहितार्थ को ज्ञात किया जा सकता है।
वेदों में विविध देव-मण्डल के देवताओं से सम्बन्धित ऋचाएँ या मंत्र है परन्तु वे एक देव तत्व, के ही परिचायक हैं- ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' (ऋग्वेद 1-164-46) यह एक क्या है कैसा है?
तमेव विदित्वाऽतिमृत्यु मेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय (यजुर्वेद, रूद्रीय) अर्थात उसके साक्षात ज्ञान से ही मृत्यु के पार जाया जा सकता है, मृत्यु और संसार के पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है।
उच्छिष्टे नाम रूपं चोच्छिष्टे लोक आहितः (अथर्ववेद 11-9-1) अर्थात् इस उच्छिष्ट (प्रपञ्च–निषेध के बाद अवशिष्ट सत्) पर नाम रूप आश्रित है, इसी पर सारा लोक आश्रित है।
जब हम ऋग्वेद का अध्ययन प्रारम्भ करते है तो सर्वप्रथम ऋचा है- ऊँ अग्निमीले पुरोहितम् ......... जो ‘अग्नि देवता से सम्बन्धित स्तुति है। प्रारम्भिक ऋग्वेद के समय में आर्यों को ‘अग्नि' की उपादेयता का अनुभव हुआ था और वे अग्नि को प्रज्वलित रखते थे तथा इसी अग्नि स्थल पर ऋषि विविध ऋचाओं का अनुभव करते थे। यह ऋषियों की तपस्या स्थली थी। यही यज्ञ वेदिका थी जिसमें ऋषि विविध देवताओं को 'हव्य' और आहुतियाँ प्रदान करते थे। ‘स्थूल’ पदार्थों का ‘हव्य' अग्नि में भस्म होकर ‘सूक्ष्म’ होता था और स्थूलता के भाव सूक्ष्मता में परिणित होते थे। यह मानसिक यज्ञ भी ऋषियों की तपस्या के रूप में चलता रहता था। विविध प्रकृति सम्बन्धी देवताओं यथा पवन देवता, सूर्य, रूद्र, सरस्वती, इन्द्र, अश्विनी कुमार, वरूण आदि देवताओं की उन्हें अनुभूति होती रहती थी जिनकी स्तुति में ऋचाएँ होती थी। सूर्य देवता को सम्बोधित करके गायत्री मंत्र ईश्वरानुभूति के रूप में ऊँ भू र्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्
प्रसिद्ध मंत्र है, (ऋग्वेद 3-62-10) तथा (यजुर्वेद 30-5-100-35)॥ सबसे अधिक ऋचाएं इन्द्र देवता के सम्बन्ध में वेद में प्राप्त होती हैं। इन ऋचाओं में ऋषि देवता को अपने यज्ञ स्थल पर आदर, सद्भाव, अभिनन्दन और प्रेम पूर्वक स्वागत करते हुए बुलाता है और प्रार्थना करता है कि 'हे इन्द्र देवता! आप मेरे यज्ञ में पधारिए, मेरा कल्याण कीजिए। आपके लिए सोम बल्लरी को पत्थरों से कूट कर, रस निचोड़कर, छानकर, शर्करा, दुग्ध मिलाकर रखा गया है। आप मेरे यज्ञ में पधारिए और इस सोम रस का पान कीजिए। इसी सोम रस को पीकर आपने ‘वृत्रासुर’ का वध किया था। इसी प्रकार अन्य देवताओं के लिए भी प्रार्थना की गई है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि सोमरस कोई शक्तिवर्धक पेय पदार्थ है ।
परन्तु ध्यान देने की बात है कि फिर आगे की ऋचाओं में ऋषि सोमरस के सम्बन्ध में कहता है- "हे सोम देवता! आप मेरे यज्ञ में पधारिए, मेरा कल्याण कीजिए। आपको ही ग्रहण करके 'इन्द्र' ने वृत्रासुर का वध किया था। इस प्रकार सोम रस पदार्थ को देवता के रूप में उदबोधित करना भौतिक दृष्टि से तो बड़ा अटपटा लगता है और ऋचा को समझने और अनुभव करने में अत्यधिक कठिनाई उत्पन्न करता है।
इस पर विशेष चिन्तन और मनन करने पर यह अनुभव होता है कि सम्भवतः ऋषि सोम रस को सोम देवता कहकर पुकारने में उसके भौतिक स्वरूप पर नहीं वरन् उसके चैतन्य स्वरूप की अनुभूति कर रहा है। सोम रस सहज रूप में चैतन्य विकसित करने वाला रस है जो समस्त वनस्पतियों में कुछ न कुछ व्याप्त है। यह ऋचा आकस्मिक नहीं है वरन् वाद में ऋग्वेद के नवम् मंडल में पूरे एक मंडल की ऋचाएँ ‘पवमान सोम’ (पवित्र सोम) के रूप में प्राप्त होती हैं। सामवेद में भी ‘ऐन्द्र पर्व' के बाद ‘सोम पर्व' में अनेक ऋचाएँ संकलित रूप में पवमान के सम्बन्ध में प्राप्त होती है। चारों वेदों में यह स्थिति है।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि वेद के ज्ञान में 'चेतन तत्व' ही प्रधान तत्व है। यह चेतना हर वस्तु में ऋषि अनुभव करता है। तभी तो वह अन्य ऋचाओं में इष्टिका (ईंट) देवता,