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संबंधों के रहस्य
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Ebook106 pages57 minutes

संबंधों के रहस्य

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About this ebook

मस्तिष्क से मस्तिष्क का संवाद विचारों एवं शब्दों द्वारा होता है जबकि हृदय से हृदय को संवाद भावनाओं द्वारा। सदियों से मनुष्य का अनुभव है कि भावनाओं को व्यक्त करना सम्भव नहीं। यदि हम शब्दों द्वारा भावनाओं को व्यक्त करने लगें तो हम बड़ा सामान्य जीवन व्यतीत करेंगे। जीवन समृद्ध है क्योंकि हम भावनाओं को शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाते। अतः हम इन्हें व्यक्त करने के लिए बहुत सी मूक मुद्राओं का प्रयोग करते हैं, जैसे आलिंगन, जिससे हम अपने हृदयों को करीब ला सकें। हम फूल भेंट करते हैं ताकि हम अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सकें।

Languageहिन्दी
PublisherAslan eReads
Release dateMar 4, 2019
ISBN9789385898716
संबंधों के रहस्य

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    संबंधों के रहस्य - श्री श्री रविशंकर

    Cover

    भूमिका

    गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी विश्व के कुछ चुनें हुए प्रेरक एवं ओजस्वी व्यक्त्तित्वों में से एक होने के साथ- साथ वर्तमान पीढ़ी के मौलिक विचारक भी हैं।

    व्यवहारिक ज्ञान की बातें करते हुए उन्होने विश्व के लाखों लोगों के विचारों को परिवर्तित किया है। उनकी बातें ज्ञान और परामर्श का अनुपम मिश्रण हैं जो की अत्यन्त ही सहजता एवं विनोदप्रियता के साथ कही गयी हैं, वे सशक्त्त एवं अद्वितीय तरीके से लोगों के दिलो-दिमाग को स्पर्श करती हैं, जहाँ भी उन्हें सुना गया है।

    यह हर्ष का विषय है कि गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी की आकर्षक एवं गम्भीर बातें, जो उन्होने संम्बन्धों के रहस्य को सुलझाते हुए विभिन्न जगहों पर कहीं हैं उनका सहज संकलन पाठकों हेतु प्रस्तुत है।

    वास्तविकता संवाद का अन्वेषण

    मानसिक संवाद विचारों एवं शब्दों के जरिये होता है परन्तु दिलों की बातचीत भावनाओं के द्वारा होती है। लोगों ने, युगों से सदैव, महसूस किया है कि वे अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त्त नहीं कर सकते। यदि हम अपनी भावनाओं को शब्दों के द्वारा कह सकते तो हमारा जीवन अत्यन्त ही छिछला होगा। जबकि जिन्दगी अत्यन्त कीमती है जिसे शब्दों में कैद नहीं किया जा सकता। इसलिए हम संकेंतो का प्रयोग करते हैं, यथा हम आलिंगन करते हैं ताकि नजदीकियाँ बढ़ें, हम फूल देते हैं भावनाओं को प्रदर्शित करने हेतु और पूरा प्रयास करते हैं भाव प्रदर्शन हेतु फिर भी बहुत सारी बातें अनकही रह जाती हैं।

    दो आत्माओं के बीच संवाद खामोश है। जब हम भावनाओं के स्तर से ऊपर हैं तो निस्तब्ध हो जाते हैं। निस्तब्धता किसी भी अनुभव की पराकाष्ठा है - इसलिए ही कहा गया है कि - खामोश रहिये और अपने ईश्वर को जानिये।

    जब हमारी आँखें खुली होती हैं तो हम क्रियाकलाप में खोये रहते हो जब आँखें बंद हो तो निद्रा मे चले जाते हैं। इस तरह हम मुख्य बिंदु से वंचित रह जाते है। मुख्यबिंदु इन दोनों अवस्थाओं के बीच में हैं।

    चिन्तन के द्वारा हम अर्न्तमन में ईश्वर को देखते हैं और प्रेम मे हम ईश्वर का अपने निकटतम व्यक्त्ति में दर्शन करते हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। अत: जितनी ही ज्यादा हम उनकी (ईश्वर) सेवा करते हैं उतनी ही गहराई में उतरते जाते हैं।

    संसार में दो तरह के लोग होते हैं - एक वे जो अपने तक केन्द्रित होते हैं और अपने ही संवर्धन में लगे रहते हैं, जबकि दूसरे सेवा में ही खोये रहते हैं। जो सेवा में ही खोये रहते हैं यदि थकान महसूस करें, निराश हो जायें या फिर क्रोधित हों तो उनकी सेवा भी प्रभावित होती है।

    एक बार कुछ युवा स्काउटों से रविवार की सेवा में फादर ने कहा - ‘तुम सभी को सेवा करनी चाहिये।’

    सेवा क्या है?, उन सभी ने पूछा।

    फादर ने कहा, मान लो कि एक बूढ़ी स्त्री सड़क पार करना चाहती है, आप सभी आगे बढ़कर उसकी सहायता करें।

    स्काउटों ने एक हफ़्ते तक इन्तजार किया, लेकिन कोई भी बूढ़ी स्त्री सड़क पार करती नहीं दिखी। अन्तत: उनमें से चार को एक बूढ़ी स्त्री फुटपाथ पर टहलती हुई दिखी। एक आगे बढ़ा और पूछा, मैडम, क्या आप सड़क पार करना चाहेगीं?

    बूढ़ी स्त्री ने कहा, नहीं।

    स्काउट बहुत निराश हुआ। दूसरा आगे बढ़ा यह सोचते हुए कि शायद पहले लड़के ने ठीक से नहीं पूछा होगा, उसने भी पूछा, क्या आप सड़क पार करना चाहेंगी?

    वह महिला थोड़ा घबराई, उसे आश्चर्य भी हुआ कि उससे ऐसा क्यों पूछा जा रहा था। इसलिए उसने कहा, कि चलो ठीक है सड़क पार करवा दो। ज्योंही वे दूसरी तरफ पहुँचे, तीसरा स्काउट पहुँचा और उसने पूछा, क्या आप सड़क पार करना चाहेंगी?

    इस बात से वह महिला घबरा गई।

    और जब चौथा पहुँचा, वह तकरीबन चिल्लाते हुए भागी।

    हम सोचते हैं कि सेवा है। सेवा का मतलब कुछ भी करना नहीं है। यह वह भावना है जिसमें आप तत्परतापूर्वक कुछ करने को उद्धत होते हैं। ज्यादातर लोग पहले ना! ही कहते हैं और बाद में सोचकर हाँ! कहते हैं।

    यदि, कोई आपसे पूछे कि क्या आप मुझे घुड़सवारी करने दोगे तो आप पहले ना! कहोगे, उसके बाद ही आप हाँ कहेगें। आप उसे घुड़सवारी का मौका दे सकते हैं लेकिन पहले ना कहने कि वजह से अन्त:करण में खींचतान होती है।

    सेवा, दूसरे व्यक्त्ति में ईश्वर का दर्शन करना है, और जब हम सेवा करते हैं तो अर्न्तमन की गहराई में उतरते हैं - जितनी गहराई में उतरते हैं उतनी ही बेहतर सेवा में समर्थ होते हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। खैर।

    अब आप मुझे बतायें कि आप मुझे किस विषय पर सुनना चाहोगे?

    श्रोतागण: अतिशयता, क्षमाशीलता, दिन-प्रतिदिन के कार्यों में ईश्वर के दर्शन, गुणग्राहियता, साहस, प्रतिद्वन्दता और विश्वास।

    गुरुदेव: ठीक है, क्या यह महत्व रखता है कि हम किस विषय पर बातचीत करने वाले हैं? क्या आप सभी यहाँ शत-प्रतिशत उपस्थित हैं? यदि आप भूखे हैं तो आप मानसिक रुप से रेस्तरां में भी पहुँच सकते हैं। भले

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