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जिज्ञासा की प्रकृति
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Ebook75 pages39 minutes

जिज्ञासा की प्रकृति

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मैं कौन हूँ इस प्रश्न के साथ रहो। यह प्रश्न एक ऐसा साधन है जिससे आप शुरुआत कर सकते हैं, और आत्मस्वरूप में गहन स्तर में डूब सकते हैं। केवल कुछ पुस्तकें पढ़ने मात्र से या थोड़ा बहुत यहाँ वहाँ आध्यात्मिक कर्म कर लेने से बात नहीं बनेगी यद्यपि कुछ मदद अवश्य मिल जाएगी। थोड़ा बहुत ज्ञान प्राप्त होगा पर पूरी बात नही बनेगी। यह प्रश्न, केवल यह एक प्रश्न ही काफी है आपको स्व के गहन और गहनतर स्तरों में उतारने को। हम अपना पूरा प्रयास करते हैं ताकि हमारी भावना अभिव्यक्ति हो सकें तब भी प्रतीत होता है कि वे अव्यक्त ही रह गईं।

Languageहिन्दी
PublisherAslan eReads
Release dateMar 4, 2019
ISBN9789385898730
जिज्ञासा की प्रकृति

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    जिज्ञासा की प्रकृति - श्री श्री रविशंकर

    Cover

    भूमिका

    गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर विश्व के कुछ चुने हुए प्रेरक एवं ओजस्वी व्यक्त्तित्वों में से एक होने के साथ-साथ वर्तमान पीढ़ी के मौलिक विचारक भी हैं।

    व्यवहारिक ज्ञान की बातें करते हुए उन्होने विश्व में लाखों लोगों के विचारों को परिवर्तित किया है। उनकी बातें ज्ञान और परामर्श का अनुपम मिश्रण हैं जो की अत्यन्त ही सहजता एवं विनोदप्रियता के साथ कही गयी हैं, जहां भी उन्हें सुना गया है वहां वे सशक्त्त एवं अद्वितीय तरीके से लोगों के दिलो-दिमाग को स्पर्श करते हैं।

    अपार हर्ष के साथ हम प्रस्तुत कर रहें हैं इस विचारोत्तेजक संकलन एवं गम्भीर किन्तु सहजता से समझ में आनेवाली बातचीत को जिसे परम पावन गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी ने, एक समय के अन्तराल में, मानवीय जिज्ञासा की प्रकृति को प्रशंसित करते हुये कहीं हैं।

    जिज्ञासा की प्रकृति

    आपने ईश्वर को हमेशा पिता के रुप में सोचा है, स्वर्ग में कहीं रहते हुये! लेकिन क्या आप ईश्वर को एक बच्चे के रुप में सोच सकते हैं?

    जब आप ईश्वर को पिता के रुप में देखते हैं, आप माँगना चाहते हैं और उनसे कुछ पाना चाहते हैं, लेकिन जब आप ईश्वर को एक बच्चे के रुप में देखते हैं तो कोई माँग नहीं रहती।

    ईश्वर आपके अस्तित्व का महत्वपूर्ण अंश है। ईश्वर आपमें सारगर्भित है। आपको ध्यान रखना है अपनी इस गर्भावस्था का ताकि बच्चे की संसार में उत्पत्ति हो। ईश्वर आपका बच्चा है जो कि आपसे एक शिशु की भाँति चिपका रहता है जब तक कि आप वृद्ध नहीं होते और शरीर नहीं त्यागते। यह बच्चा आपसे चिपका रहता है पोषण हेतु - साधना, सतसंग और सेवा ही पोषण है।

    ईश्वर को निराकार रुप में देखना कठिन है, और ईश्वर को आकार रुप में देखना भी कठिन है! निराकार अत्यन्त अमूर्त है, और ईश्वर, मूर्तरुप में काफ़ी सीमित प्रतीत होता है। अत: कुछ लोग नास्तिक होना पसंद करते हैं।

    फिर भी नास्तिकता एक यथार्थ नहीं है, यह एक सहूलियत मात्र है। जब आपमें प्रश्न करने की भावना होती है, या फिर सत्य की खोज में होते हैं, नास्तिकता छिन्न-भिन्न हो जाती है। प्रश्न की भावना के साथ आप उस बात को नकार नहीं सकते जिसे आपने खंडित नहीं किया है। एक नास्तिक नकार देता है ईश्वर को, बिना मिथ्या साबित किये! ईश्वर को नकारने हेतु, आपको असीमित ज्ञान की आवश्यकता होती है, और जब आपके पास असीमित ज्ञान होता है तो आप ईश्वर को नकार ही नहीं सकते! एक व्यक्त्ति को यह कहने हेतु कि किसी चीज का अस्तित्व नहीं है, उसे सम्पूर्ण ब्रह्मांड को जानना होगा। अत: आप कभी शत-प्रतिशत नास्तिक हो ही नहीं सकते। एक नास्तिक केवल एक विश्वासी व्यक्ति है, जो सुप्तावस्था में होता है! यथार्थ में, नास्तिक वह है जिसके पास ईश्वर की अवधारणा होती है।

    एक व्यक्त्ति को यह कहने हेतु कि, मैं किसी चीज में विश्वास नहीं करता! - का मतलब है वह अपने में अवश्य विश्वास रखता है! अत: वह स्वयं में विश्वास करता है - जिसके बारे में वह जानता कुछ भी नहीं! एक नास्तिक कभी भी निष्ठावान नहीं हो सकता क्योंकि निष्ठा हेतु गम्भीरता की जरुरत होती है, और नास्तिक गहराई में जाने से इंकार करता है क्योंकि जितनी ही गहराई में वह जाता है, उसे और रिक्त्तता दिखती है- जबकि सब संभावनायें इसी क्षेत्र में हैं, और उसे तब स्वीकार करना पड़ता है, बहुत सारे रहस्य हैं, जिन्हे

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