Premchand Ki Prasidh Kahaniya: Shortened version of popular stories
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Premchand Ki Prasidh Kahaniya - Prasoon Kumar
खिलाड़ी
प्रेमचन्द का जीवनवृत्त
हिन्दी साहित्य में लोकप्रियता की दृष्टि से तुलसीदास के बाद मुंशी प्रेमचन्द का अपना विशिष्ट स्थान है। भारत ही नही, विदेशों-विशेषतः रूस में भी वे लोकप्रिय हैं। सामान्यतः वह उपन्यास-सम्राट् के रूप में प्रसिद्ध हैं, किन्तु वह अपने समय में भारतीय जनता के भी हृदय-सम्राट् बने।
प्रेमचन्द आधुनिक कथा-साहित्य में नवयुग के प्रवर्तक थे। कुछ लोग उन्हें भारत का ‘गोर्की’ कहते हैं, तो कुछ लोग उन्हें ‘होर्डी’ के रूप में देखते हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी रचनाओं में अधिकांशतः ग्रामीण वातावरण का चित्रण किया।
प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई सन् 1880 (संवत् 1937, शनिवार) को वाराणसी-आजमगढ़ रोड पर, वाराणसी नगर से चार मील दूर स्थित लमही नामक गाँव में एक निम्नवर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ था। पिता का नाम अजायब राय और माता का नाम आनन्दी देवी था। बचपन में इनका नाम धनपत राय श्रीवास्तव था, जो बाद में हिन्दी साहित्य जगत में ‘प्रेमचन्द’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ‘प्रेमचन्द’ नामकरण मुंशी दयानारायण निगम ने किया था, जो प्रेमचन्द के अभिन्न मित्र थे और उस समय के प्रसिद्ध अखबार ‘जमाना’ के सम्पादक थे। उर्दू में ‘मुंशी’ का अर्थ होता है-लिखने वाला या लेखक। इसीलिए प्रेमचन्द के नाम के पूर्व ‘मुंशी’ शब्द भी जुड़ गया और वे ‘मुंशी प्रेमचन्द’ भी कहलाने लगे। वैसे प्रेमचन्द का घरेलू नाम ‘नवाब’ भी था।
प्रेमचन्द की आरम्भिक शिक्षा गाँव के ही एक मदरसे में हुई। उस समय शिक्षा में प़फ़ारसी और उर्दू की खास अहमियत थी। इसका प्रभाव प्रेमचन्द के लेखन पर खूब पड़ा। उसके बाद वाराणसी के क्वींस कालेज से मैट्रिक परीक्षा पास करके, सन् 1899 में अध्यापक के रूप में अपने परिवार के जीविकोपार्जन हेतु नौकरी आरम्भ की। नौकरी करते हुए ही प्राइवेट रूप से बी.ए. की परीक्षा पास की। उन्होंने गहन स्वाध्याय किया और उसी के बलबूते पर सरकारी नौकरी करते हुए 1908 में स्कूलों के सब-डिप्टी इंसपेक्टर भी बने।
प्रेमचन्द ने सन् 1901 में कहानी लिखना शुरू किया। उनकी पहली कहानी ‘अनमोल रत्न’ उर्दू में छपी, क्योंकि उन्हें अच्छी हिन्दी उस समय तक नहीं आती थी। सन् 1920 में महात्मा गाँधी के आह्नान पर सरकारी नौकरी छोड़कर स्वतन्त्रता-संग्राम में कूद पड़े। अपनी लेखनी के माध्यम से उन्होंने देशसेवा का व्रत लिया। सन् 1934 में कुछ दिनों तक मुम्बई में रहकर फिल्म कथाकार के रूप में भी जीविकोपार्जन के लिए कार्य किया।
प्रेमचन्द ने अपने लेखन का आरम्भ उर्दू में किया, जिसमें सन् 1908 में देश-प्रेम की भावना से ओत-प्रोत कई कहानियों का संग्रह ‘सोजे वतन’ नाम से छपा। इसी कहानी-संग्रह के बाद उन्होंने ‘प्रेमचन्द’ के नाम से लिखना आरम्भ किया। ‘सोजे वतन’ बहुत प्रसिद्ध हुआ। ब्रिटिश सरकार ने इसकी प्रतियाँ जप्त करके इसके प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। यह पुस्तक ‘नवाब राय’ के नाम से प्रकाशित हुई थी। बाद में प्रेमचन्द ने हिन्दी की सर्वव्यापकता देख-जानकर हिन्दी में लिखना आरम्भ किया। वस्तुतः हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं के साहित्य-लेखन में उनका गारै वपूर्ण स्थान रहा। हिन्दी में लिखित उनके उपन्यास- सेवासदन, निर्मला, रंगभूमि, गबन, कायाकल्प, प्रेमाश्रम, गोदान आदि विश्वविख्यात उपन्यास हैं, जिनके आधार पर प्रेमचन्द को ‘उपन्यास-सम्राट्’ की उपाधि हिन्दी साहित्य जगत् में मिली।
प्रेमचन्द ने निबन्ध, नाटक और आलोचनाएँ भी लिखीं। उन्होंने लगभग 300 कहानियाँ लिखीं, जिनमें बच्चों, किशोरों, युवाओं, प्रौढ़ों और नारियों को केन्द्रित करके देश की तत्कालीन सामाजिक रूढ़ि-परम्पराओं पर चोट करते हुए बच्चों में राष्ट्रप्रेम, नैतिकता, निडरता आदि का चित्रण किया। प्रेमचन्द की कहानियों के संग्रह अनेक नामों से बाजार में उपलब्ध हैं, किन्तु उनकी समस्त कहानियों का एकमात्र संग्रह ‘मानसरोवर’ नाम से आठ भागों में, उनके ही समय से प्रसिद्ध है।
प्रेमचन्द के समय में बच्चों के लिए जो पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही थीं, वे बच्चों में जागरूकता, राष्ट्रप्रेम, और नये ज्ञान से भरपूर रचनाएँ प्रस्तुत कर रही थीं। उस समय के अनेक लेखक, कवि और साहित्यकार बच्चों के लिए रचनाएँ कर रहे थे और उन्हें राष्ट्रीयभावना, स्वदेशी और नैतिक मूल्यों आदि के पाठ के साथ विज्ञान और नयी दुनिया के आधुनिक ज्ञान से भी परिचित करा रहे थे। प्रेमचन्द ने भी उन दिनों जो रचनाएँ कीं, वे उस समय के बच्चों में नैतिकता, साहस, स्वतन्त्र विचार-अभिव्यक्ति और आत्मरक्षा की भावना जगाने वाली सिद्ध हुईं। प्रेमचन्द ने ‘मर्यादा’, ‘माधुरी’, ‘हंस’ और ‘जागरण’ आदि अनेक पत्रिकाओं का सम्पादन भी इसी विचार को दृष्टिगत करके किया।
प्रेमचन्द ने बच्चों के लिए विशेष रूप से जो कहानियाँ लिखीं, उन पर विचार करना आवश्यक है कि वे बच्चों के बारे में क्या सोचते थे। वही सोच उनकी बाल-कहानियों में भी मिलती है।
प्रेमचन्द ने सन् 1930 में ‘हंस’ पत्रिका में एक सम्पादकीय ‘बच्चों को स्वाधीन बनाओ’ शीर्षक से लिखा। उसमें उन्होंने लिखा था- ‘बालकों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि वे जीवन में अपनी रक्षा स्वयं कर सकें। बालकों में इतना विवेक होना चाहिए कि वे प्रत्येक कार्य के गुण-दोष अपने भीतर की आँखों से देखें’। प्रेमचन्द ने इसी विचारभूमि पर बाल-कहानियों की रचना की।
यह सत्य भी स्वीकार करना होगा कि प्रेमचन्द के अधिकांश बाल पाठकों ने अपनी पाठ्य पुस्तकों में उनकी कहानियाँ पढ़कर ही प्रेमचन्द को जाना और उन्हें स्मरण रखा। प्रेमचन्द की कहानियों की भाषाशैली अत्यन्त सरल व सुबोध है। उन्हें हिन्दी का सामान्य पाठक भी पढ़कर, समझकर उनका रस लेता है।
प्रेमचन्द प्रगतिशील आन्दोलन से भी जुड़े। सन् 1936 में उन्होंने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का प्रथम अधिवेशन, जो लखनऊ में आयोजित हुआ था, उसकी अध्यक्षता भी की। उन्हीं दिनों उन्हें जलोदर रोग हुआ। महीनों इस रोग से ग्रस्त होकर अन्ततः चिकित्सा के अभाव में 8 अक्टूबर सन् 1936 को वाराणसी मे उनका देहावसान हो गया।
इस पुस्तक में प्रेमचन्द की तेरह कहानियाँ दी जा रही हैं।, इस विश्वास के साथ कि ये बच्चों और सामान्यतः सभी पाठकों को पसन्द आयेंगी। कहानियों में कहीं-कहीं कठिन और स्थानीय शब्द भी आये हैं, जिनका अर्थ फुटनोट के रूप में उसी पृष्ठ पर नीचे दे दिया गया है, जिससे पाठकों को शब्दार्थ ग्रहण करने में असुविधा न हो।
-सम्पादक
दो बैलों की कथा
प्रेमचन्द मूलतः कृषक परिवार के थे। उन दिनों कृषि कार्य लाभदायक नहीं रह गया था, इसलिए उनके पिता डाकखाने में काम करने लगे थे। प्रेमचन्द ने कृषक-जीवन में बैलों को आपस में एक-दूसरे को चाटते, धक्कम-धुक्का करते देखा था और उसी भाव से ओत-प्रेत यह कहानी मानवीय भावों का आरोप करके लिखी गयी।
(एक)
जा नवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को परले दरजे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है या उसके सीधेपन, उसकी निरापद ¹ सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता। गायें सींग मारती हैं, ब्यायी हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है, किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहो गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असन्तोष की छाया भी न दिखायी देगी। बैशाख में चाहे एकाध बार वह कुलेल ² कर लेता हो, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा। उसके चेहरे पर एक स्थायी विषाद ³ स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दुख, हानि-लाभ, किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं देखा। ऋषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा ⁴ को पहुँच गये हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है। सद्गुणों का इतना अनादर कहीं न देखा। कदाचित् सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है।
लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कम ही बुद्धिहीन है, और वह है ‘बैल’। जिस अर्थ में हम गधा का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में ‘बछिया के ताऊ⁵’ का भी प्रयोग करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफों में सर्वश्रेष्ठ में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं है। बैल कभी-कभी मारता भी है। कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में आता है, जो कई रीतियों से अपना असन्तोष प्रकट कर देता है, अतएव उसका स्थान गधे से नीचा है।
1. आपत्ति हीन। 2. प्रसन्नता प्रकट करना। 3. दुःख। 4. ऊँचाई। 5. बैल।
‘झूरी’ नामक काछी के दोनों बैलों के नाम थे हीरा और मोती। दोनों पछाही¹ जाति के थे। देखने में सुन्दर, काम में चौकस, डील में ऊँचे। बहुत दिनों से साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आसपास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे। एक-दूसरे के मन की बात कैसे समझ जाता था, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है। दोनों एक-दूसरे को चाटकर और सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे। विग्रह² के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से। जैसे दोस्तों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफुसी, कुछ हल्की-सी रहती है, जिस पर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता। जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत दिये जाते और गरदन हिला-हिलाकर चलते, उस वक्त हर एक की यही चेष्टा होती थी कि ज्यादा-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गरदन पर रहे। दिन-भर के बाद दोपहर या सन्ध्या को दोनों खुलते, तो एक-दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लेते। नाँद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नाँद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मुँह हटा लेता, तो दूसरा भी हटा लेता था।
संयोग की बात, झूरी ने एक बार दोनो गोईं³ को ससुराल भेज दिया। बैलों को क्या मालूम, वे क्यों भेजे जा रहे हैं। समझे, मालिक ने हमें बेच दिया है। अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने? पर झूरी के साले ‘गया’ को घर तक गोईं ले जाने में दाँतों पसीना आ गया। पीछे से हाँकता तो दोनों दायें-बायें भागते पगहिया⁴ पकड़कर आगे से खींचता, तो दोनों पीछे को जोर लगाते। मारता तो दोनों सींग नीचे करके हुँकारते। अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती, तो वे झूरी से पूछते, तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो? हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था तो और काम ले लेते, हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था। हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस जालिम के हाथों क्यों बेच दिया?
1. पश्चिमी। 2. कलह। 3. जोड़ी। 4. ढोर बाँधने की रस्सी।
सन्ध्या समय दोनों बैल अपने नये स्थान पर पहुँचे। दिन-भर के भूखे थे, लेकिन जब नाँद में लगाये गये, तो एक ने भी उसमें मुँह न डाला। दिल भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया था। यह नया घर, नया गाँव, नये आदमी उन्हें बेगानों-से लगते थे।
दोनों ने अपनी मूकभाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गये। जब गाँव में सोता¹ पड़ गया, तो दोनों ने जोर मारकर पगहे² तुड़ा डाले और घर की तरफ चले। पगहे बहुत मजबूत थे। अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड़ सकेगा, पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गयी थी। एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गयीं।
झूरी प्रातःकाल सोकर उठा, तो देखा कि दोनों बैल चरनी³ पर खड़े हैं। दोनों की गरदनों में आधा-आध गराँव⁴ लटक रहा है। घुटने तक पाँव कीचड़ से भरे हैं और दोनों की आँखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है।
झूरी बैलों को देखकर स्नेह से गद्गद हो गया। दौड़कर उन्हें गले लगा लिया। प्रेमालिंगन और चुम्बन का वह दृश्य बड़ा ही मनोहर था।
घर और गाँव के लड़के जमा हो गये और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे। गाँव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्त्वपूर्ण थी। बाल-सभा ने निश्चय किया कि दोनों पशु-वीरों को अभिनन्दन-पत्र देना चाहिए। कोई अपने घर से रोटियाँ लाया, कोई गुड़, कोई चोकर, कोई भूसी।
एक बालक ने कहा, ऐसे बैल किसी के पास न होंगे।
दूसरे ने समर्थन किया, इतनी दूर से दोनों अकेले चले आये।
तीसरा बोला, बैल नहीं है, ये उस जनम के आदमी हैं।
इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस न हुआ।
झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा, तो जल उठी। बोली, कैसे नमकहराम बैल हैं कि एक दिन वहाँ काम न किया, भाग खड़े हुए।
झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका, नमकहराम क्यों हैं? चारा-दाना न दिया होगा, तो क्या करते?
स्त्री ने रौब के साथ कहा, बस तुम्हीं तो बैलों को खिलाना जानते हो और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं।
1. सब सो गये। 2. बैलों की रस्सी। 3. मेड़दार लम्बा चबूतरा, जिस पर गाय-बैल को चारा-पानी दिया जाता है। 4. फन्देदार रस्सी जो बैल आदि के गले में पहनायी जाती है। ।
झूरी ने चिढ़ाया, चारा मिलता तो क्यों भागते?
स्त्री चिढ़ी, भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुद्धुओं की तरह बैलों को सहलाते नहीं। खिलाते हैं तो रगड़कर जोतते भी हैं। ये दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले। अब देखूँ, कहाँ से खली और चोकर मिलता है। सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूँगी, खायें चाहें मरें।
वही हुआ। मजूर को बड़ी ताकीद¹ कर दी गयी कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाये।
बैलो ने नाँद में मुँह डाला, तो फीका-फीका। न कोई चिकनाहट, न कोई रस। क्या खायें? आशाभरी आँखों से द्वार की ओर ताकने लगे।
झूरी ने मजूर से कहा, थोड़ी-सी खली क्यों नहीं डाल देता बे?
मालकिन मुझे मार ही डालेंगी।
चुराकर डाल आ।
ना दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे।
(दो)
दूसरे दिन ‘झूरी’ का साला फिर आया और बैलों को ले चला। अबकी उसने दोनों को गाड़ी में जोता।
दो-चार बार मोती ने गाड़ी को सड़क की खाई में गिराना चाहा, पर हीरा ने सम्भाल लिया। वह ज्यादा सहनशील था।
सन्ध्या समय घर पहुँचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बाँधा और कल की शरारत का मजा चखाया। फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली, चूनी सब कुछ दी।
दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। झूरी इन्हें फूल की छड़ी से भी न छूता था। उसकी टिटकार² पर दोनों उड़ने लगते थे। यहाँ मार पड़ी। आहत-सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा।
नाँद की तरफ आँखें तक न उठायीं।
दूसरे दिन ‘गया’ ने बैलों को हल में जोता, पर इन दोनों ने जैसे पाँव न उठाने की कसम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया, पर दोनों ने पाँव न उठाया। एक बार जब उस निर्दयी ने