Samasyayo Ka Samadhan - Tenali Ram Ke Sang: Practical solutions to everyday problems
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About this ebook
The book is a marvelous treasury of legends of Tenali Raman and Emperor Raya which evokes a long lost, never- never land: an enchanted world of alert wits and tricky gossips; crafty crooks with biting tongues, valiant brigands and an assorted cluster of uncommon common people.
Narrated by the author and superbly illustrated, “Fix Your Problems – The Tenali Raman Way” is an engaging blend of earthly wisdom and sparkling humour which deal with concepts that have certain timelessness. Each story is followed by terse moral and incalculable snippets which are usually that little extra that brings the reader a little more closer to his goal on the way to realizations. Every story purveys a pithy folk wisdom that triumphs over all trials and tribulations. The moralistic traits sagaciously portrayed by these stories intend to develop a series of impacts that can reinforce certain key ideas by the rational mind of the readers in all facets of life and propel them to the top in every endeavour. The stories various layers of meaning educates, informs, advises, enthuses, inspires and amuses and thus have a teaching effects which makes this book a must read for every aspiring individuals who wants to race ahead in the world of opportunities and cusses. The book also exposes how richly endowed Bharata Khanda (India before invasions) had been in the east in the field of wisdom and knowledge down the ages of which the west is ignorant.
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Samasyayo Ka Samadhan - Tenali Ram Ke Sang - Navneet Mehra & Ishita Bhown
है।"
प्रस्तावना
भारतवर्ष की सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है। भारतभूमि पूरे संसार के लिए एक अजूबा रही है। भारत का विस्तार इतना अधिक है कि अन्य देश इसके सौवें भाग के बराबर भी नहीं हैं। हम सभी, जब सूती कपड़ा पहनते हैं; दशमलव का प्रयोग करते हैं; मुर्गी के स्वाद का आनन्द लेते है; शतरंज या चौपड़ खेलते हैं; आम चूसते हैं; हाथियों की सवारी करते हैं; मन की शान्ति के लिए योग एवं आत्मिक गुरुओं की शरण लेते हैं; या सिर के बल खड़े होने जैसी हठयौगिक क्रियाएँ करते है, तब हम भारतवर्ष की सम्पन्न सभ्यता के ऋणी होते हैं।
हमारे प्राचीन ग्रन्थों- वेद, उपनिषद, स्मृति, सूत्र, धर्मशास्त्र आदि में प्राचीन ऋषियों द्वारा अर्जित ज्ञान भरा है। इसी ज्ञान के भण्डार से हमारे आज के ज्ञान का उद्भव हुआ है। भारत की सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था का मुख्य आधार ये प्राचीन ग्रन्थ ही हैं, जिनमें वर्षों का अर्जित ज्ञान समाया हुआ है। आज हमें इस ज्ञान की ज्योति को सम्पूर्ण भारत में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में बिखेरना है।
अटलाण्टिक महासागर के द्वारा ब्रिटेन से भारत आते हुए मार्ग में पुर्तगाल, स्पेन, अल्जीरिया आदि देश पार करते हुए यात्री भारत पहुँचते हैं। मार्ग में अर्जित ज्ञान और अनुभव, उस ज्ञान और अनुभव से कहीं कम है, जो भारतीय अपने देश में बैठे हुए ही अर्जित कर लेते हैं।
अवतारों के इस देश भारत में हर पुस्तक, हर अनुभव, हर ज्ञान को पूरा महत्व मिलता है। कुछ भी भुलाया नहीं जाता। इसीलिए भारतीय सभ्यता को आज भी अत्यन्त रहस्यमय, अवैज्ञानिक, प्राचीन, परम्परागत, पुरातनवादी और समाजवादी माना जाता है। हमारे गुणों, परम्पराओं और धर्मों को नवीन और पश्चिमी सभ्यता पुरानी बताती है, क्योंकि वे भारत की अनमोल उच्च सभ्यता, परम्पराओं और ज्ञान का मूल्य पश्चिम की उथली, क्षणभंगुर सभ्यता के आगे लगाने में असमर्थ हैं। पश्चिमी सभ्यता की बाह्य चमक-दमक में भारतीय-संस्कृति की आन्तरिक खूबसूरती छुप चुकी है। वे भूल चुके हैं कि कभी भारत में बीरबल, चाणक्य, मनु और तेनालीराम जैसे महान ज्ञानी हुए थे, जिनके मुँह से निकला एक-एक शब्द ज्ञान का भण्डार था।
यदि हम नवीनता और पश्चिमी सभ्यता अपनाने के चक्कर में अपने मूल्यों और परम्पराओं को भूल जाते हैं, तो हमसे बड़ा मूर्ख कौन होगा? हम अपनी इस पुस्तक के द्वारा सोलहवीं सदी की एक महान विभूति का आपसे परिचय करा रहे हैं, जो पूरे विजयनगर साम्राज्य के चहेते थे।
दक्षिण पठार में स्थित विजयनगर साम्राज्य को पुर्तगाली ‘बिस्नग साम्राज्य’ के नाम से जानते थे। यह साम्राज्य हम्पी के विरूपाक्ष मन्दिर के चारों ओर बसा था। उत्तरी कर्नाटक के बेल्लरी जिले में आज भी विजयनगर के भग्न अवशेष पाये जाते हैं। भारत के सबसे ताकतवर राज्यों में से एक, विजयनगर आज भी दूर-दूर से लोगों को आकर्षित करता है। इस शहर के भग्न अवशेषों को यूनेस्को ने ‘वर्ल्ड हेरिटेज साइट’ घोषित किया था। हम्पी के आसपास चलने वाले वाहनों, सड़कों और पुलों के निर्माण के कारण इस भग्न शहर के अवशेषों को नुकसान पहुँचने का अन्देशा बढ़ चुका है। इसलिए सन् 1999 में यूनेस्को ने इसे लुप्तप्राय स्थल घोषित किया।
ऐसा माना जाता है कि विजयनगर भारत का सबसे बड़ा राज्य था और पन्द्रहवीं सदी में विश्व का दूसरे स्थान का शहर था, क्योंकि यहाँ लाख लोग रहते थे। चौदहवीं से सोलहवीं सदी तक विजयनगर साम्राज्य का सितारा बुलन्दी पर था। इसी बीच विजयनगर के शासकों का दिल्ली के सुल्तान और दक्षिण के सुल्तानों के साथ लड़ाई-झगड़ा चलता रहता था।
जब दिल्ली के ताकतवर सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद-बिन तुगलक ने दक्षिण के हिन्दू राज्यों पर हमला बोला, तब दो हिन्दू राजकुमार हरिहर राय और बुक्का राय, जिन्हें संगमा भाइयों के नाम से भी जाना जाता है, ने कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच अपने साम्राज्य की स्थापना की, जो आगे चल कर महान विजयनगर साम्राज्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सन् 1336 में स्थापित इस साम्राज्य ने सुल्तानों को दक्षिण में आगे बढ़ने से रोका। हरिहर और बुक्का संगमा के पुत्र थे, जो होयसल राजा के दरबार में सेनापति थे।
हरिहर राय विजयनगर साम्राज्य के प्रथम राजा बने। उनकी मृत्यु के बाद उनके भाई बुक्का राय राजा बने। जल्दी-जल्दी शासक बदलने के कारण प्रारम्भ में विजयनगर साम्राज्य को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा जैसे कि बाहरी हमले, आन्तरिक लड़ाइयाँ, आपसी बदले की भावना आदि। ऐसा पन्द्रहवीं सदी के अन्त तक चलता रहा और विजयनगर साम्राज्य का सितारा लगातार गर्त होता गया। फिर विजयनगर के एक सेनापति सलुव नरसिंहदेव राय ने सन् 1485 में, और एक अन्य सेनापजि तुलुव नरसा नायक ने सन् 1491 में बिखरे हुए विजयनगर साम्राज्य का पुनर्गठन किया। करीब बीस वर्षों की कड़ी मेहनत और लड़ाई के बाद इस साम्राज्य की बागडोर तुलुव कृष्णदेव राय के हाथ आ गयी, जो तुलुव नरसा नायक और नागल देवी के पुत्र थे।
आने वाले कई दशकों में विजयनगर साम्राज्य पूरे दक्षिण भारत में फैल गया। विजयनगर की सेना लगातार विजयी होती गयी और साम्राज्य का विस्तार होता गया। राजा कृष्णदेव राय की कीर्ति हर ओर फैल गयी। दिल्ली के सुल्तानों द्वारा हथियाये गये, दक्षिणी राज्यों को भी अब विजयनगर की सेना ने जीत कर अपने राज्य में मिला लिये थे। उत्तर और पूर्व के भी अनेक राज्य विजयनगर में मिलाये जा चुके थे। इनमें से एक राज्य कलिंग भी था। राजा कृष्णदेव राय ने अपने शासककाल में अनेक राजाओं के साथ युद्ध किये, जिनमें से मुख्य थे- उड़ीसा के गजपति, बहमनी सुल्तान, उम्माटुर के राजाओं, कोड़ाविडु के रेड्डी, भुवनगिरि के वेलम। इसके अतिरिक्त बिदार, गुलबर्ग, गोलकोण्डा, कोविलकोण्डा और बीजापुर पर भी राजा कृष्णदेव राय ने हमले किये और विजयी हुए।
राजा कृष्णदेव राय (1509-1529) विजयनगर साम्राज्य के सबसे महत्वपूर्ण राजा थे, जिन्हें कन्नड़ राज्य राम रमन्ना; मूरू रायरा गण्ड (तीन राजाओं के बराबर एक राजा) और आन्ध्र भोज नाम से भी जाना जाता है। राजा कृष्णदेव राय न केवल एक कुशल शासक थे बल्कि एक बेहतरीन सेनापति भी थे, जो अपनी सेना का कुशल संचालन करते थे। इन्हीं गुणों के कारण आज तुलुव, कन्नडिग और तेलुगु राजाओं में राजा कृष्णदेव राय सबसे महत्वपूर्ण माने जाते हैं। उन्होंने विजयनगर साम्राज्य को सफलता के शिखर तक पहुँचा दिया था।
राजा कृष्णदेव राय के देहान्त के बाद विजयनगर साम्राज्य धीरे-धीरे बिखरने लगा। कृष्णदेव राय का शासनकाल विजयनगर साम्राज्य का वह स्वर्णिम अध्याय था, जिसमें राजा कृष्णदेव राय जो भी छूते थे, सोना हो जाता था। वे जिस भी राज्य पर हमला करते थे, विजयी ही होते थे। इसीलिए राजा ‘कृष्णदेव राय’ सम्राट अशोक, समुन्द्रगुप्त और हर्षवर्धन के समान महान राजा माने जाते हैं। हाल ही में 27-29 जनवरी 2010 में कर्नाटक की राज्य सरकार ने राजा कृष्णदेव राय के राज्यतिलक के पाँच सौ वर्ष पूरे होने पर एक उत्सव का आयोजन किया था।
मध्यकाल के मशहूर यूरोपीय यात्री डोमिंगो पेस, फर्नाओ नूनिज और निकोलों दा कॉन्ती द्वारा लिखे यात्रा-वृत्तान्त, अन्य ग्रन्थ, और विजयनगर की खुदाई में निकली चीजों से साम्राज्य की अपार धन-सम्पदा का पता चलता है। राजा कृष्णदेव राय कलाप्रेमी थे, उनकी छत्रछाया के तले अनेकों विद्वान, कवि, गायक, लेखक, चित्रकार आदि कला की ऊँचाइयों को छूते थे। दक्षिण भारत के इतिहास में राजा कृष्णदेव राय के शासनकाल में हिन्दुत्व का सम्पूर्ण प्रभुत्व रहा है। इसी काल में अनेक भाषाओं में ग्रन्थ भी लिखे गये। तेलुगु, संस्कृत, कन्नड़ और तमिल कवियों की अनेक बेहतरीन रचनाएँ इसी काल में लिखी गयी थी।
राजा कृष्णदेव राय को दरबार ‘भुवन विजयम्’ कहलाता था। उसमें अन्य दरबारियों के अतिरिक्त आठ कवि भी थे, जिन्हें ‘अष्टदिग्गज’ या राजदरबार के आठ स्तम्भों की तरह आठ कोनों (पूर्व, पश्चिम आदि) में खड़े आठ हाथी कहते थे। ये थे - अलासनी पेद्दन (जिन्हें तमिल काव्य का जनक भी माना जाता है) नन्दी थिम्मन, मदयगिरि मल्लन, दुर्जति, अय्यलराजू-राम भद्रादु, पिंगली सुराना, रामराज भूषणुदु और तेनालीराम। तेनालीराम भी इन महान कवियों में एक तो थे ही, साथ ही उन्हें अपनी वाकपटुता और चतुराई के कारण ‘राज विदूषक’ की उपाधि भी मिली थी।
गरलापति तेनालीराम ने एक ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया था। उनका परिवार आन्ध्र प्रदेश के गुण्टूर जिले के तेनाली शहर के तुमुलुरू गाँव में रहता था। तेनालीराम माँ काली के भक्त थे। अष्टदिग्गजों में से एक, तेनालीराम राजा कृष्णदेवराय के ‘राज विदूषक’ थे। राजदरबार में तेनालीराम अपनी प्रतिभा के कारण राजमुकुट में जड़े बेशकीमती हीरे की तरह चमकते थे। कई बार तेनालीराम ने अपनी वाकपटुता और चतुराई से राज्य और महाराज के सम्मान की रक्षा की।
तेनालीराम को आज भी हम सब उनकी मजेदार कहानियों और चटपटी बातों के लिए याद करते हैं। तेनालीराम हर बात बेखौफ होकर बोलते थे। यहाँ तक कि दिल्ली के सुल्तान को भी तेनालीराम की बातें आमतौर पर सोची-समझी बातों से हट कर होती थीं और वे सुनने वालों को सोचने पर मजबूर कर देती थीं।
यह पुस्तक तेनालीराम की ऐसी अनेक ज्ञान भरी बातों का संग्रह है, चाहे वे राजा कृष्णदेव राय के दरबार में हों या हम्पी राज्य में, आम लोगों के बीच या तेनालीराम के अपने घर पर। तेनालीराम के अधिकतर कार्य, बातें और विचार शुरू में अजीब लगते हैं, पर उनका सार समझ में आते ही वे बेहद सामान्य और सटीक लगने लगते हैं। यहाँ तक कि अपनी बात समझाने के जो तरीके तेनालीराम ने अपनाये वे भी अनोखे हैं। इस पुस्तक में ऐसी अनेकों घटनाएँ व समस्याएँ हैं, जिन्हें पढ़कर लगता है कि तेनालीराम द्वारा सुझाये तरीके से बेहतर वे सुलझ ही नहीं सकती थीं। ये कहानियाँ अपने भीतर अनेक अर्थ छुपाये हैं, जिनमें से किसी को भी हम चुनें, वह ज्ञान से परिपूर्ण होता है।
मुश्किल से मुश्किल, खतरनाक से खतरनाक हालात को भी तेनालीराम के सरल उपाय एकदम आसान और हास्यपूर्ण बना डालते थे। ये सभी बातें आज भी उतनी ही सत्य हैं, जितनी उस काल में थीं, जब तेनालीराम राजा कृष्णदेव राय के दरबार में विदूषक थे। मशहूर अँग्रेज लेखक ऑस्कर वाइल्ड ने सन् 1892 में कहा था, हम सभी नाले में पड़े हैं, पर हममें से कुछ ऊपर सितारों की ओर देख रहे हैं
। जैसे-जैसे आप ‘तेनालीराम के पन्ने पलटते जायेंगे और पुस्तक की एक के बाद एक कहानियाँ पढ़ते जायेंगे, आपके सम्मुख नये विचारों का पोथा खुलता जायेगा। तेनालीराम की बातें समय से परे हैं। आज वे कहानियों के रूप में जनसाधारण के जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं। जहाँ एक ओर इन कहानियों का चुटकीला हास्य मनोरंजन करता है, वहीं दूसरी ओर हमें इनसे शिक्षा भी मिलती है। आज भी दक्षिण भारत के हर घर, दफ्रतर, कॉफी हाउस में लोग तेनालीराम की कहानियाँ सुनते-सुनाते हैं और उनके उदाहरण देकर जीवन की छोटी-बड़ी समस्याएँ सुलझाने का सफल प्रयास करते हैं। तो पलटिये इस पुस्तक के पृष्ठ और जानिये उस अनूठे ज्ञान और चतुराई का सम्मिश्रण, जो आपको हर मुसीबत से बचने की राह दिखायेगा।
सन् 1597 ईस्वी में सर फ्रांसिस बेकन ने कहा था, ज्ञान में शक्ति है।
तो आइये! पृष्ठ पलटें और इस शक्ति को साक्षात अनुभव करें।
-विशाल गोयल
सूर्योदय
माँ काली सहस्त्रमुखी बन कर अत्यन्त भयानक स्वरूप में प्रकट हुई थीं। परन्तु तेनाली को उनका भयानक रूप तनिक भी न डरा पाया। माँ काली को साक्षात समक्ष पाकर तेनाली ने उनके पाँव छुए और जोर से हँसने लगा।
तेनाली को हँसते देख माँ काली अचम्भित हुईं और उन्होनें तेनाली से उसके इस प्रकार हँसने का कारण जानना चाहा।
ओ देवी माँ! इस प्रकार हँसने के लिए क्षमा चाहता हूँ। परन्तु ज्यों ही मैने आपको देखा एक ख्याल मेरे दिमाग में आया। जब मुझे सर्दी के कारण जुकाम हो जाता है और मेरी नाक बहने लगती है, तो मेरे लिए दो हाथों से एक बहती नाक को सँभालना भारी हो जाता है। मैं सोच रहा था कि अगर कभी आपको जुकाम हो गया और आपकी हजार नाकें बहने लगीं, तो आप अपने दो हाथों से उन्हें कैसे सँभालेंगी? बस यही सोच कर मुझे हँसी आ गयी। यदि मुझसे कोई गुस्ताखी हो गयी हो, तो कृपया मुझे क्षमा करें माँ
।
ऐसा कह कर तेनालीराम माँ काली के पैरों पर गिर पड़ा। वैसे यह दृश्य होगा तो बहुत मजेदार!
देवी माँ ने मुस्कुराते हुए कहा, तुम एक चतुर एवं वाचाल बालक हो। मैं तुम्हें लोगों को हँसाने की कला का वरदान देती हूँ। आज से तुम
विकट कवि अर्थात् विदूषक
कहलाओगे और खूब नाम कमाओगे।"
इसे दोनों ओर से पढ़ने पर समान प्रतीत होता है-वि-क-ट-क-वि।
तेनाली कुछ सोच कर बोला, परन्तु देवी माँ! इससे मुझे कुछ हासिल नहीं होगा।
तेनालीराम को देवी का दर्शन
हुम्म्........!
देवी माँ ने सिर हिलाते हुए कहा, ठीक है! मैं तुम्हें एक और वरदान देती हूँ। मेरे हाथ में दो मटकियाँ हैं। मेरे दायें हाथ में सोने की मटकी है, जिसमें ज्ञान का दूध है और बायें हाथ में चाँदी की मटकी है जिसमें धन की दही है। तुम्हें दोनों में से एक मटकी चुननी है।
‘मुझे तो दोनों ही मटकियों की आवश्यकता है, क्योंकि एक के बिना दूसरी मटकी बेकार है।’ तेनाली ने मन में सोचा। फिर ऐसे दिखाते हुए जैसे गहरी सोच में डूबा हो, वह अपना सिर खुजाने लगा।
अरे माँ! बिना चखे मैं दोनों में से एक मटकी कैसे चुन सकता हूँ?
उसने कहा। हाँ, यह तो है।
-देवी माँ ने तेनाली की बात पर अपनी सहमति देते हुए कहा और अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिये।
पलक झपकते ही तेनाली ने दोनों मटकियों में भरे दूध और दही गटक लिये और मटकियाँ खाली कर दीं।
यह देख कर देवी माँ नाराज हो गयी। वे समझ गयी कि तेनाली ने उनके साथ चालाकी की है। क्षमा करें माँ
, तेनाली ने धीरे से कहा, परन्तु मुझे दोनों ही मटकियों की आवश्यकता थी। आप ही बतायें बिना धन-दौलत के केवल ज्ञान का क्या लाभ?
जो तुम कह रहे हो, वह सही है। पर तुम्हारी वाचालता और तुम्हारा ऐश्वर्य तुम्हारे लिए शत्रु व मित्र दोनों ही बनायेंगें इसलिए भविष्य में सावधान रहना।
यह कह कर माँ काली ने तेनाली राम को आशीर्वाद दिया और वहाँ से अन्तर्धान हो गयीं।
इस प्रकार तेनालीराम हर क्षेत्र में आगे निकला और हास्यकवि के रूप में प्रसिद्ध हुआ। उसने संस्कृत, तेलुगु, मराठी, तमिल और कन्नड़ भाषाओं का गहन अध्ययन किया।
शीघ्र ही तेनाली को समझ में आ गया कि यदि जीवन में उन्नति करनी है, तो उसे उस छोटे से गाँव ‘तेनाली’ से बाहर निकल कर ‘हम्पी’ जाना होगा। ‘हम्पी’ विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी। तेनाली जानता था कि विजयनगर के महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में विद्वानों का बहुत सम्मान किया जाता है।
एक बार विजयनगर के राजगुरु तथाचार्य सिरिगेरी आये जो तेनाली के समीप ही था। तेनाली ने अपनी बेहतरीन कविताओं का पुलिन्दा बनाया और राजगुरु से मिलने पहुँच गया। तेनाली की कविताएँ सुनकर राजगुरु अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्होंने तेनाली को विजयनगर के राजदरबार में आने का निमन्त्रण दिया।
मौके का फायदा उठाते हुए तेनाली ने अपना घर जमीन बेच दिया और अपनी पत्नी अग्रथा, छोटे भाई तेनाली अन्नया, छोटे पुत्र एवं वृद्ध माता के साथ विजयनगर की ओर चल पड़ा।
विजयनगर पहुँच कर तेनाली राजगुरु से मिलने गया परन्तु राजगुरु ने उसे पहचानने से भी इनकार कर दिया। तेनालीराम ने उन्हें याद दिलाने की कोशिश की, तो सैनिकों ने उसे बाहर निकाल दिया और दोबारा राज दरबार में घुसने या महाराज से मिलने से रोक लगा दी।
तेनाली ने हिम्मत नहीं हारी और अन्त में महाराज कृष्णदेव राय से मिल कर ही रहा। तेनाली की वाचालता और बुद्धिमानी ने महाराज का दिल जीत लिया और शीघ्र ही उसके लिए राजदरबार के द्वार खुल गये। इस पहले कदम के बाद