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व्यक्ति और विश्व का सम्बन्ध

-अरुण कुमार उपाध्याय, भु वने श्वर


१. विश्व के ३ स्तर-वेद में ववश्व का ३ स्तर ों का वणणन है -१. आकाश की सृवि आविदै ववक, २. पृथ्वी पर दृश्य
जगत्-आविभौवतक, ३. मनु ष्य शरीर-आध्यात्मिक। ये ३ ववश्व परस्पर प्रवतमा हैं , अतः वेद मन्त् ों के ये ३ प्रकार के
अर्ण हैं ।
गीता, अध्याय ८-अजुण न उवाच-
वकों तद् ब्रह्म वकमध्यािों वकों कमण पुरुष त्तम। अविभू तों च वकों प्र क्तमविदै वों वकमु च्यते॥१॥
अवियज्ञः कर्ों क ऽत्र दे हेऽत्मिन्मिुसूदन। प्रयाणकाले च कर्ों ज्ञे य ऽवस वनयतािवभः॥२॥
श्री भगवानु वाच-अक्षरों ब्रह्म परमों स्वभाव ऽध्याि उच्यते। भूतभाव द्भवकर ववसगणः कमण सोंवज्ञतः॥३॥
अविभू तों क्षर भावः पुरुषश्चाविदै वतम् । अवियज्ञ ऽहमे वात्र दे हे दे हभृ ताों वर॥४॥
ये तीन ों ववश्व ३ प्रकार से दे खे जाते हैं -(१) ब्रह्म-ज सब कुछ है -ब्रह्मों खत्मिदों सवणम्। (मै त्रायणी उपवनषद् , ४/६)
(२) कमण -ब्रह्म के कण या वपण् ों में ज गवत ह ती है , वह कमण है । बाह्य गवत ज दीखती है , वह शु क्ल है , वह ३
प्रकार की है -दू र जाना, वनकट आना, समान दू री पर त्मथर्र या वृत्तीय। आन्तररक गवत दीखती नहीों है , वह कृष्ण
है । कृष्ण गवत १७ प्रकार की है -एक समतल क वचह् ों के ववन्यास द्वारा १७ प्रकार से भरा जा सकता है अतः
ज्य वतष में घन या मे घ का अर्ण १७ है (Plane Crystallography theorem-e.g Algebra by Michel Artin,
page 175)। ५ महाभू त ों की १५ प्रकार शु क्ल गवत ह गी अतः शु क्ल यजु वेद के १५ शाखा हैं। ५ महाभू त ों की १७
x ५ = ८५ प्रकार की गवत ह गी। एक अन्य गवत अनु भव से परे या असत् है , इसे वमला कर कृष्ण यजु वेद की ८६
शाखा हैं । अन्धकूप में इसी कारण नकण के भी ८६ भे द हैं ।
(३) यज्ञ-वजस कमण द्वारा चक्रीय क्रम में उपय गी वस्तु का उत्पादन ह वह यज्ञ है । उअपय गी वस्तु वह है वजससे
यज्ञ चक्र और मानव सभ्यता चलती रहे अतः उससे बचा हुआ अन्न ही भ ग करते हैं वजससे चक्र बन्द नहीों ह ।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुर वाच प्रजापवतः। अने न प्रसववध्यष्वमेषव ऽत्मििकामिुक्॥ (गीता ३/१०)
यज्ञवशिावशनः सन्त मु च्यन्ते सवणवकत्मिषै ः ॥१३॥
एवों प्रववतणतों चक्रों नानु वतणयतीह यः । अघायुररत्मियाराम म घों पार्ण स जीववत ॥१६॥
२. काल और पु रुष-वकसी वपण् का ज बाह्य रूप दीखता है वह सदा पुराना ह ता रहता है और नि ह जाता
है -यह क्षर पुरुष है । उसका वक्रयािक रूप या कूटथर् पररचय त्मथर्र रहता है -यह अक्षर पुरुष है । पररवतणन क्रम
में बाह्य ववश्व से पदार्ण वववनमय दे खा जाय त क ई अन्तर नहीों ह ता-यह अव्यय पुरुष है । बहुत सूक्ष्म या बहुत
ववराट् में क ई भे द नहीों दीखता, उस परात्पर का वणणन नहीों ह सकता।
द्वाववमौ पुरुषौ ल के क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सवाण वण भू तावन कूटथर् ऽक्षर उच्यते॥१६॥
उत्तमः पुरुषिन्यः परमािेत्युदाहृतः। य ल कत्रयमाववश्य वबभत्यणव्यय ईश्वरः॥१७॥
यिात्क्षरमतीत ऽहमक्षरादवप च त्तमः। अत ऽत्मि ल के वेदे च प्रवर्तः पुरुष त्तमः॥१८॥ (गीता, अध्याय १५)
ज काल बाह्य रूप या रचना का सदा क्षरण करता रहता है वह वनत्य काल है । एक बार ज त्मथर्वत चली गयी वह
वापस नहीों आती अतः इस काल क मृ त्यु भी कहते हैं । यज्ञ चक्र से समय की माप ह ती है जै से प्राकृवतक चक्र ों
से वदन, मास, वषण की माप। यह कलनािक या जन्य (उत्पादक यज्ञ का चक्र) काल है । पूरी सोंथर्ा क दे खने पर
क ई पररवतणन नहीों ह ता ज अक्षय काल एवों ववश्व का आिार है ।
काल ऽत्मि ल क क्षयकृत्प्रवृद्धः (गीता १०/३२)
कलनािक काल में भौवतक ववज्ञान में अभी भी सन्दे ह है वक यन्त् ववज्ञान तर्ा ववद् युत्-चुम्बकत्व में ववणणत काल
एक ही हैं या अलग। यह गणना की सबसे कविन समस्या है, अतः कृष्ण ने गणना में अपने क कलनािक काल
कहा है -
कालः कलयतामहम् । (गीता १०/३०)
अहमे वाक्षयः काल िाताहों ववश्वत मु खः (गीता १०/३३)
अतः पुरुष तर्ा काल के ४ पाद ों की तुलना इस प्रकार है -
पुरुष काल वणणन
क्षर वनत्य सदा क्षरण(Thermodynamic arrow of Time)
अक्षर जन्य यज्ञ द्वारा वनमाण ण (Measurable time-cycles)
अव्यय अक्षय सोंरक्षण वसद्धान्त
परात्पर परात्पर वणणन से परे
ववश्व, जगत्, जगत्याों जगत्-ईशावास्य पवनषद् -ईशावास्यवमदों सवं यत्मिञ्च जगत्याों जगत्। तेन त्यक्ते न भु ञ्जीर्ाः मा
गृिः कस्य त्मस्वद्धनम् ॥१॥
यवद सब कुछ ईश का ही है त उससे बचा क्या है वजसका भ ग करें । इसका िीक अर्ण शात्मन्त पाि से वमलता है
वजसमें ३ प्रकार के पूणण कहे गये हैं ।
ॐ पूणणमदः पूणणवमदों पूणाण त् पूणणमुदच्यते। पूणणस्य पूणणमादाय पूनणमेवाववशष्यते॥
इसका एक रूप ब्रह्म-कमण -यज्ञ है । समवि रूप में यही ववश्व, जगत्, जगत्याों जगत् है ।
सीमाबद्ध वपण् ज अपने आप में पूणण सोंथर्ा है , वह ववश्व है ।
ववश्व का वक्रयािक रूप ज प्रायः अदृश्य है , जगत् है ।
यज्ञ रूप ववश्व जगत्याों जगत् है वजसमें ९ सगों में अव्यक्त से व्यक्त की सृवि ह रही है । जगत्याों = चक्रीय क्रम,
जगत् वपण् ों जै सा ग ल।
२. विश्व के ५ पिव -प्रजापवत ने ववश्व के ५ पवों की रचना की र्ी ज एक दू सरे की प्रवतमा हैं-
स ऐक्षत प्रजापवतः (स्वयम्ू ः) इमों वा आिनः प्रवतमामसृवक्ष। आिन ह्येतों प्रवतमामसृजत। ता वा एताः प्रजापतेरवि
दे वता असृज्यन्त-(१) अवनः (तद् गवभण त भू वपण्श्च), (२) इिः (तद् गवभण तः सूयणश्च), स मः (तद् गवभण तः चिश्च), (४)
परमे ष्ठी प्राजापत्यः (स्वायम्ु वः)-शतपर् ब्राह्मण (११/६/१/१२-१३)
पुरुष ऽयों ल क सत्मित इत्युवाच भगवान् पुनवणसुः आत्रे यः, यावन्त वह ल के मू वतणमन्त भावववशे षास्तावन्तः पुरुषे ,
यावन्तः पुरुषे तावन्त ल के॥ (चरक सोंवहता, शारीरथर्ानम् ५/२)
शतपर् ब्राह्मण में प्रवतमा का सबसे सूक्ष्म वणणन है । ल म का अर्ण चमण पर सूक्ष्म केश हैं । उसका गत्तण या आिार
शरीर के क ष या कवलल हैं । यह एक समय की माप का भी नाम है क्य ों वक १ वषण में वजतने ल मगत्तण हैं उतने ही
शरीर में कवलल हैं । वषण में १०८०० मु हूत्तण हैं (३६० x ३०)। १ मु हूत्तण क ७ बार १५-१५ से भाग दे ने पर ल मगतण
आता है ज सेकण् का प्रायः ७५,००० भाग है । वषण या शरीर में वजतने ल मगत्तण हैं उतने ही आकाश में नक्षत्र हैं
अर्ाण त् दृश्य जगत् में ब्रह्माण् या हमारे ब्रह्माण् में तारा सोंख्या। यह अनु मान पहली बार १९८५ में हुआ-ये सभी
सोंख्या १०० अरब हैं । यह ववश्व का कण रूप है , अतः इस सोंख्या क खवण (चूणण या कण रूप) कहते हैं ।
एभ्य ल मगत्ते भ्य ऊर्ध्ाण वन ज्य तीोंष्यान् । तद्यावन ज्य तीोंवषः एतावन तावन नक्षत्रावण। यावन्त्ये तावननक्षत्रावण तावन्त
ल मगत्ताण ः। (शतपर् ब्राह्मण- १०/४/४/२)
पुरुष वै सम्वत्सरः। ।१॥ ..दश वै सहस्राण्यािौ च शतावन सम्वत्सरस्य मु हूत्ताण ः। यावन्त मु हूत्ताण स्तावत्मन्त
पञ्चदशकृत्वः वक्षप्रावण। यावत्मन्त वक्षप्रावण, तावत्मन्त पञ्चदशकृत्वः एतहीवण। याबन्त्ये तहीवण, तावत्मन्त पञ्चदशकृत्व
इदानीवन। यावन्तीदानीवन तावन्तः पञ्चदशकृत्वः प्राणाः। यावन्तः प्राणाः, तावन्त ऽनाः। यावन्त ऽनाः तावन्त
वनमे षाः। यावन्त वनमे षाः तावन्त ल मगत्ताण ः। यावन्त ल मगत्ताण ः तावत्मन्त स्वेदायनावन। यावत्मन्त स्वेदायनावन, तावन्त
एते स्त का वषण त्मन्त। (शतपर् ब्राह्मण १२/३/२/१-५)
५ पवण या वक्रयािक यज्ञ रूप ५ हैं अतः ववश्व के ज्ञानप्रात्मि के ५ रूप भी तैवत्तरीय उपवनषद् , शीक्षा वल्ली,
अनु वाक् ३ में ववणणत हैं ।
अविल क-पूवण रूप-पृवर्वी, उत्तर रूप-द्यौ, सत्मन्ध-आकाश, सन्धान-वायु।
अविज्यौवतष-अवन, आवदत्य, आपः, वैद्युत्।
अविववद्या-आचायण, वशष्य, ववद्या, प्रवचन।
अविप्रजा-माता, वपता, प्रजा = सन्तान, प्रजनन।
अध्याि-अिर हनु , उत्तर हनु , वाणी, वजह्वा।
द न ों हनु के बीच ज्ञान और कमण के ५-५ इत्मिय ों की सत्मन्ध है । ज ज्ञान और कमण -द न ों में श्रे ष्ठ है , वह हनु मान् है -
वजनके ववशेषण हैं -मन जवों, ज्ञावननामग्रगण्यों, सकलगुणवनिानम् आवद।
एक अन्य ववचार से आकाश सृवि के ५ पवों के ३-३ मन ता हैं , अतः ५ या ३ या १५ प्रकार से ववश्व का ज्ञान ह ता
है ।
वतस्र वै दे वानाों मन ताः, तासु वह तेषाों मनाों वस ओतावन। वाग् वै दे वानाों मन ता, तस्याों वह तेषाों मनाों वस ओतावन। गौः
वह दे वानाों मन ता, तस्याों वह तेषाों मनाों वस ओतावन। अवनः वै दे वानाों मन ता, तत्मिन् वह तेषाों मनाों वस ओतावन। अवनः
सवाण मन ता, अनौ मन ताः सोंगच्छन्ते। (ऐतरे य ब्राह्मण २/१०)
यावन पञ्चिा त्रीवण त्रीवण तेभ्य न ज्यायः परमन्यदस्त्।
यस्तद् वेद स वेद सवणम्, सवाण वदश बवलमिै हरत्मन्त॥ (छान्द ग्य उपवनषद् २/२१/३)
सहस्रिा पञ्चदशावन उक्था यावद् द्यावा पृवर्वी तावद् इत तत्॥
सहस्रिा मवहमानः सहस्रों यावद् ब्रह्म वववष्ठतों तावती वाक्॥ (ऋक् १०/११४/८)
३. मनु ष्य विश्व के सम्बन्ध-समाज में मनुष्य का पररचय या व्यत्मक्तत्व कई स्र त ों के अनु सार है -भारतीय, वबहारी,
ब्राह्मण, भौवतक ववज्ञानी, सरकारी अविकारी, वपता आवद। इसी प्रकार आकाश की रचनाओों के अनु सार हमारा
पररचय है -
(१) पृथ्वी-पावर्ण व शरीर (यह भी आिा है )-आिा वै तनू ः (शतपर् ब्राह्मण ६/७/२/६), पाङ्क्क्त इतर आिा
ल मत्वङ्ाों समत्मथर् मज्जा (ताण्ड्य महाब्राह्मण ५/१/४)-इसी आिा के वलये आिहत्या शब्द है । इसका जन्म ह ता
है अतः यह भू तािा है । शरीर रूपी ववश्व में आवश्रत है अतः वैश्वानर है । स यः स वैश्वानरः-इमे स ल काः। इयमे व
पृवर्वी ववश्वों -अवननण रः। अन्तररक्षमे व ववश्वों-वायुनणरः। द्यौरे व ववश्वों -आवदत्य नरः। (शतपर् ब्राह्मण ९/३/१/३) ये ३
रूप हैं -वैश्वानर, तैजस, प्राज्ञ। कुछ समय के वलये चेतना शरीर से बाहर ववचरण करती है , वह हों सािा है ।
(२) चाि मण्ल-प्रज्ञान आिा-रावत्र में ब्रह्माण् का सब वदशा में ववस्तार दीखता है , अमावास्या में उसकी अमृ त
कला दीखती है , सूयण प्रकाश से सोंयुक्त ह ने पर पूवणणमा तक चि का अपना प्रकाश घटता बढ़ता है । ब्रह्माण् का
स म (ववरल फैला तत्त्व) चि मण्ल में वमल कर जीवन की उत्पवत्त करता है । यह महान् आिा है ज मनु ष्य के
शु क्र में प्रवतवष्ठत है । इसी का उल्ले ख रघुवोंश (२/७५) में है वक सूयण से ज तेज वनकलता है वह आकाशगोंगा के
स म से वमल कर चािमण्ल में सृवि करता है जै से पुरुष का शु क्र स्त्री के रज से वमल कर स्त्री गभण में जन्म दे ता
है । इसके ३ रूप हैं -आकृवत महान् , प्रकृवत महान् , अहङ्क्कृवत महान् । दू सरा प्रभाव है चि वनकट ह ने के कारण
मन में भौवतक रूप से कम्पन पैदा करता है । यह प्रज्ञान आिा है ।
आकृवत- यत् त्वा दे व प्रवपबत्मन्त तत आ प्यायसे पुनः।
वायुः स मस्य रवक्षता समानाों मास आकृवतः॥ (ऋक् १०/८५/५)
प्रकृवत- मायाों तु प्रकृवतों ववद्यान् मावयनों तु महे श्वरम् ।
तस्यावयवभू तैस्तु व्यािों सवणवमदों जगत्॥ (श्वे ताश्वतर उपवनषद् ४/१०)
अहङ्क्कृवत-अङ्क्गुष्ठमात्रः रववतुल्य रूपः सङ्कल्पाहङ्कार समत्मित यः।
बुद्धेगुणणेनािगुणेन चैव अराग्रमात्र ऽप्यपर ऽवप दृिः॥ (श्वे ताश्वतर उपवनषद् ५/८)
प्रज्ञान-यत् प्रज्ञानमु त चेत िृवतश्च यज्ज्य वतरमृ तों प्रजासु।
यिान्न ऋते वकञ्चन कमण वक्रयते तन्मे मनः वशवसङ्कल्पमस्तु ॥ (वाज. यजु . ३४/३)
यदे तत् हृदयों मनश्चै तत् सोंज्ञानमाज्ञानों ववज्ञानों प्रज्ञानों मे िा दृ(इ)वििृणवतमणनीषा जू वतः िृवतः सङ्कल्पः क्रतुरसुः काम
वश-इवत सवाण ण्येवैतावन नामिेयावन भवत्मन्त। सवं तत् प्रज्ञाने त्रों, प्रज्ञाने प्रवतवष्ठतों प्रज्ञानों ब्रह्म॥ (ऐतरे य उपवनषद्
३/१/२)
(३) सौर मण्ल-तेज रूप दै व आिा, बुत्मद्ध रूप ववज्ञान आिा।
ववज्ञान-ववज्ञानािा सह दे वैश्च सववः प्राणा भू तावन सम्प्रवतष्ठत्मन्त यत्र।
तदक्षरों वेदयते यस्तु स म्य! स सवणज्ञः सवणमेवावववेश॥ (प्रश्न पवनषद् ४/११)
एव वह द्रिा, स्प्रिा, श्र ता, घ्राता, रसवयता, मन्ता, य द्धा, कत्ताण , ववज्ञानािा पुरुषः।
स परे ऽक्षरे आिवन सम्प्रवतष्ठते। (प्रश्न पवनषद् ४/९)
दै व-दै व वाऽअस्यै ष आिा, मानु ष ऽयम् । स यन्न न्यञ्जात्, न है तों दै वािानों प्रीणीयात्। अर् यन्न्यनत्मक्त, तर् है तों
दै वािनों प्रीणावत। (शतपर् ब्राह्मण ६/६/४/५)
(४) परमे ष्ठी मण्ल (ब्रह्माण्)-वचदािा-परम गुहा की प्रवतकृवत सूक्ष्म गुहा। सृवि वनमाण ण या यज्ञ का आरम्
परमे ष्ठी से, मनु ष्य का सजण क रूप यज्ञािा।
वचदािा (सभी क वषका में )-अनु ज्ञैकरस ह्यमािा वचद्रूप एव (नृ वसोंह उत्तरतावपनी उपवनषद् २)
महान् आिा के ४ अोंश रूप ह जाते हैं - स वा एष महानज आिा, य ऽयों ववज्ञानमयः, प्राणेषु, य एष ऽन्तहृण दय
आकाशसतत्मिञ्छे ते, सवणस्य वशी, सवणस्येशानः, सवणस्याविपवतः। स न सािुना किणणा भू यान् , न एवा सािुना
कनीयान् । एष सवेश्वरः, एष भूताविपवतः, एष भू तपालः, एष सेतुववणिरण एषाों ल कानामसोंभेदाय। (बृहदारण्यक
उपवनषद् ४/४/२२)
(५) स्वयम्ू मण्ल (पूणण जगत्)-वेद, सूत्र, अन्तयाण मी।
वेद (परस्पर का प्रभाव या ज्ञान)-स एव वनत्य कूटथर्ः, स एव वेदपुरुष इवत ववदु ष मन्यन्ते (परमहों स पवनषद् १)
सूत्र (वकन्ीों द कण ों के बीच सम्बन्ध)-वायुवव गौतम! तत् सूत्रम् । वायुना वै गौतम! सूत्रेणायों ल कः, परश्च ल कः,
सवाण वण च भू तावन सोंदृब्धावन भवत्मन्त। (बृहदारण्यक उपवनषद् ३/७/२)
इसके अवतररक्त अव्यक्त परात्पर के भी कई रूप हैं वजनमें क ई भे द या पररवतणन नहीों ह ता।
अन्तयाण मी (सबके भीतर वतणमान)-यः पृवर्व्याों वतष्ठन् , पृवर्व्या अन्तर , यों पृवर्वी न वेद, यस्य पृवर्वी शरीरों , यः
पृवर्वीमन्तर यमयवत, एष त आिाऽन्तयाण म्यमृ तः। (बृहदारण्यक उपवनषद् ३/७/३)
अखण् परात्पर-सोंववदत्मन्त न यों वेदा ववष्णु वेद न वा ववविः।
यत वाच वनवतणन्ते अप्राप्य मनसा सह॥ (तैवत्तरीय उपवनषद् २/४/९)
मायी परात्पर-यर्ा नद्यः स्यन्दमानाः समु द्रेऽस्तों गच्छत्मन्त नामरूपे ववहाय।
तर्ा ववद्वान्नामरूपावद्वमुक्तः परात्परः पुरुषमु पैवत वदव्यम् । (मु ण्क पवनषद् ३/२/८)
गूढ़ िा-दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदवशण वभः (कि पवनषद् १/३/१२)
अव्यक्ता आिा (वनराकार)-य एष ऽनन्त ऽव्यक्त आिा। (जाबाल पवनषद् २)
इत्मियेभ्यः परा ह्यर्ाण अर्ेभ्यश्च परों मनः। मनसस्तु परा बुत्मद्धबुणद्धेरािा महान् परः।
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः।
पुरुषान्न परों वकवञ्चत् सा काष्ठा सा परा गवतः। (कि पवनषद् १/३/१०,११)
शान्तािा-नमः शान्तािने तुभ्यम् (मैत्रायणी उपवनषद् ५/१)
चतुर्ण शान आिा प्लुतप्रणव प्रय गेन समस्तम वमवत। (अर्वणवशख पवनषद् १)
यदा स दे व जागवतण तदे दों चेिते जगत्। यदा स्ववपवत शान्तािा तदा सवं वनमीलवत॥ (मनुिृवत १/५२)
प्रकाश गवत से सूयण चि के सार् सम्बन्ध-सूयण से हमारा सम्बन्ध मु ख्यतः प्रकाश वकरण ों से है , कुछ गुरुत्व से भी।
हृदय से आज्ञा और सहस्रार चक्र तक हर व्यत्मक्त का अलग अलग पर् है , इसे अणु-पर् कहते हैं । ब्रह्मरन्ध्र के
बाद सबका सूयण तक एक ही मागण है । प्रकाश की गवत ३ लाख वकल मीटर प्रवत सेकण् है । इस गवत से सूयण की
दू री १५ कर ड़ वकल मीटर पार करने में ५०० सेकण् = ८ वमनट लगेंगें। अतः १ मु हूत्तण (४८ वमनट) में यह सम्बन्ध
३ बार जा कर लौट आयेगा ज ऋग्वे द में ववणणत है । चि हमारे मत्मस्तष्क द्रव क भौवतक रूप से आकवषण त करता
है ; दू र ह ने के कारण सूयण का आकषण ण बहुत कम है । इसके कारण प्रज्ञान मन में तरों गें उिती रहती हैं और मन
सदा चञ्चल रहता है । यह भी प्रकाश गवत से प्रभाव ह गा अतः प्रायः १ वनमे ष में प्रभाव ह ता है । अतः सूयण क
आिा या बुत्मद्ध कारक तर्ा चि क मन का कारक कहते हैं । यज्ञ और अव्यक्त आिा का उच्चतर ल क ों से
सम्बन्ध है । वह मनु ष्य रचना क प्रभाववत करते हैं जै से हमारे मत्मस्तष्क कण ों की सोंख्या उतनी ही है वजतना
ब्रह्माण् में तारा सोंख्या। इनके कारण दै वनक पररवतणन नहीों ह ता, पर उस वदशा में सूयण चि आवद ग्रह ों के
कारण उनका प्रभाव बदलता है । इनका वचत्र रूप नीचे वदया है ; उसके बाद कुछ उद्धरण वदये हैं ।
यहाों यज्ञािा शरीर वक्रया क सञ्चावलत करता है । अव्यक्त आिा का परमािा के सार् सम्बन्ध है । हमारे वलये
ववश्व का केि सूयण है ।
सूयण आिा जगतस्तर्ु षश्च (वाजसने यी यजु वेद ७/४२)
तदे ते श्ल का भवत्मन्त-अणुः पन्था ववततः पुराण माों स्पृि ऽनुववत्त मयैव। तेन िीरा अवपयत्मन्त ब्रह्मववदः स्वगं
ल कवमव ऊर्ध्ं ववमुक्ताः।८।
तत्मिञ्छु क्लमु त नीलमाहुः वपङ्गलों हररतों ल वहतों च। एष पन्था ब्रह्मणा ह्यानु ववत्तस्तेनैवत ब्रह्मववत्पु ण्यकृत्तै जसश्च॥
(बृहदारण्यक उपवनषद् ४/४/८,९)
अर् या एता हृदयस्य नायस्ताः वपङ्गलावणम्नत्मस्तष्ठत्मन्त शु क्लस्य नीलस्य पीतस्य ल वहतस्येत्यसौ वा आवदत्यः वपङ्गल
एष शु क्ल एष नील एष ल वहतः॥१॥ तद्यर्ा महापर् आतत उभौ ग्रामौ गच्छन्तीमों चामुों चामुष्मावदत्यात्प्रतायन्ते ता
आसु नाडीषु सृिा आभ्य नाडीभ्यः प्रतायन्ते तेऽमु त्मष्मन्नावदत्ये सृिाः॥२॥ ..... अर् यत्रै तदिाच्छरीरादु त्क्रामवत
अर्ै तैरेव रत्मिवभरूर्ध्ण माक्रामते सओवमवत वा ह द्वामीयते स यावत्मत्क्षप्येन्मनस्तावदावदत्यों गच्छत्यतद्वै खलु
ल कद्वारों ववदु षा प्रपदनों वनर ि ऽवदु षाम् ॥५॥ (छान्द ग्य उपवनषद् ८/६/१,२,५)
ब्रह्मसूत्र (४/२/१७-२०)-१-तद क ऽग्रज्वलनों तत्प्रकावशतद्वार ववद्यासामर्थ्ाण त्तच्छे षगत्यनु िृवतय गाच्च हादाण नुगृहीतः
शताविकया।
२. रश्म्म्यनु सारी। ३. वनवश ने वत चेन सम्बन्धस्य यावद्देहभाववत्वाद्दशण यवत च। ४. अतश्चायने ऽवप दवक्षणे।
रूपों रूपों मघवाब भवीवत मायाः कृण्वानस्तिों परर स्वाम् ।
वत्रयणवद्दवः पररमु हूत्तण मागात् स्वैमणन्त्ैरनृ तुपा ऋतावा॥(ऋग्वे द ३/५३/८)
वत्रहण वा एष (मघवा=इिः, आवदत्यः = सौर प्राणः) एतस्या मुहूत्तण स्येमाों पृवर्वीों समन्तः पर्य्येवत। (जै वमनीय ब्राह्मण
उपवनषद् १/४४/९)
४. ग्रह ों से सम्बन्ध- मनु ष्य का सूयण से प्रकाश वकरण गवत से ज सम्बन्ध है वह बाकी ग्रह ों के कारण र् ड़ा
प्रभाववत ह ता है । चि-सूयण तक ज सम्बन्ध है उसे सुषुम्ना कहा गया है । वकरण ों का रों ग मनु ष्य के अपने हृदय
की त्मथर्वत के अनु सार है -इनक शु क्ल, नील, ल वहत, पीत कहा गया है । ग्रह ों के प्रभाव से वकरण ों का गुण
बदलता है तर्ा उनकी वदशा भी बदलती है जै सा प्रकाश के प लराइजेशन में ह ता है ।
ग्रह बु ि शु क्र पृ थ्वी-चि मों गल बृहस्पवत शवन नक्षत्र
नाड़ी ववश्वकमाण ववश्वव्यचा सुषुम्ना सोंयद्वसु अवाण ग्वसु स्वर हररकेश
(ववश्वश्रवा)
वदशा दवक्षण पवश्चम ----- उत्तर ऊपर ----- पूवण
इनके वणणन वाजसनेवय यजु (१५/१५-१९, १७/५८, १८/४०), कूमण पुराण (भाग १, ४३/२-८), मत्स्य पुराण (१२८/२९-
३३), वायु पुराण (५३/४४-५०), वलङ्ग पुराण (१/६०/२३), ब्रह्माण् पुराण (१/२/२४/६५-७२) में हैं ज नीचे वदये गये
हैं ।
वाजसने यी यजु वेद, अध्याय १५-अयों पुर हररकेशः सूयणरत्मिस्तस्य रर्गृत्सश्च रर्ौजाश्च सेनानीग्रामण्यौ।
पुवञ्जकथर्ला च क्रतुथर्ला चाप्सरसौ दृङ्क््णवः पशव हे वतः पौरुषे य विः प्रहे वतस्ते भ्य नम अस्तु ते न ऽवन्तु ते न
मृ डयन्तु ते यों वद्वष्म यश्च न द्वे वि तमे षाों जम्े दध्मः॥१५॥ अयों दवक्षणा ववश्वकमाण तस्य रर्स्वनश्च रर्े वचत्रश्च सेनानी
ग्रामण्यौ। मेनका च सहजन्या चाप्सरसौ यातुिाना हे ती रक्षाों वस प्रहे वतस्ते भ्य नम अस्तु ते न ऽवन्तु ते न मृ डयन्तु ते
यों वद्वष्म यश्च न द्वे वि तमेषाों जम्े दध्मः॥१६॥ अयों पश्चावद्वश्वव्यचास्तस्य रर्प्र तश्चासमरर्श्च सेनानी ग्रामण्यौ।
प्रम्ल चन्ती चानु म्ल चन्ती चाप्सरसौ व्याघ्रा हे वतः सपाण ः प्रहे वतस्ते भ्य नम अस्तु ते न ऽवन्तु ते न मृ डयन्तु ते यों
वद्वष्म यश्च न द्वे वि तमे षाों जम्े दध्मः॥१७॥ अयमु त्तरात् सोंयद्वसुस्तस्य तार्क्ष्णश्चाररिने वमश्च सेनानी ग्रामण्यौ।
ववश्वाची च घृताची चाप्सरसावाप हे वतवाण तः प्रहे वतस्ते भ्य नम अस्तु ते न ऽवन्तु ते न मृ डयन्तु ते यों वद्वष्म यश्च न
द्वे वि तमे षाों जम्े दध्मः॥१८॥ अयमु पयणवाण ग्वसुस्तस्य सेनवजच्च सुषेणश्च सेनानी ग्रामण्यौ। उवणशी च
पूवणवचवत्तश्चाप्सरसाववस्फूजणन् हे वतववणद्युत् प्रहे वतस्ते भ्य नम अस्तु ते न ऽवन्तु ते न मृ डयन्तु ते यों वद्वष्म यश्च न
द्वे वि तमे षाों जम्े दध्मः॥१९॥
अध्याय १७-सूयणरत्मिहण ररकेशः पुरस्तात् सववता ज्य वतरुदयााँ अजस्रम् । तस्य पूषा प्रसवे यावत ववद्वान्त्सम्पश्यत्मिश्वा
भु वनावन ग पाः॥५८॥
अध्याय १८-सुषुम्णः सूयणरत्मिश्चिमा गन्धवणस्तस्य नक्षत्राण्यप्सरस भे कुरय नाम।
स न इदों ब्रह्म क्षत्रों पातु तिै स्वाहा वाट् ताभ्यः स्वाहा॥४०॥
कूमण पुराण, पूवणववभाग, अध्याय ४३-
तस्य ये रिय ववप्राः सवणल क प्रदीपकाः। तेषाों श्रे ष्ठाः पुनः सि रिय ग्रहय नयः॥२॥
सुषुम्न हररकेशश्च ववश्वकमाण तर्ै व च। ववश्वव्यचाः पुनश्चान्यः सोंयद्वसुरतः परः॥३॥
अवाण वसुररवत ख्यातः स्वराडन्यः प्रकीवतणतः। सुषुम्नः सूयणरत्मिस्तु पुष्णावत वशवशरद् युवतम् ॥४॥
वतयणगूर्ध्णप्रचार ऽसौ सुषुम्नः पररपठ्यते। हररकेशस्तु यः प्र क्त रत्मिनणक्षत्र प षकः॥५॥
ववश्वकमाण तर्ा रत्मिबुणिों पुष्णावत सवणदा। ववश्वव्यचास्तु य रत्मिः शु क्रों पुष्णावत वनत्यदा॥६॥
सोंयद्वसुररवत ख्यातः स पुष्णावत च ल वहतम् । बृहस्पवतों प्रपुष्णावत रत्मिरवाण वसुः प्रभ ः।
शनै श्चरों प्रपुष्णावत सिमस्तु सुराट् तर्ा॥७॥
एवों सूयण प्रभावेण सवाण नक्षत्रतारकाः। विणन्ते वविणता वनत्यों वनत्यमाप्याययत्मन्त च॥८॥
मत्स्य पुराण, अध्याय १२८-सुषुम्ना सूयणरत्मियाण क्षीणम् शवशनमे िते। हररकेशः पुरस्तात्तु य वै नक्षत्रय वनकृत्॥२९॥
दवक्षणे ववश्वकमाण तु रत्मिराप्याययद् बुिम् । ववश्वावसुश्च यः पश्चाच्छु क्रय वनश्च स िृतः॥३०॥
सोंविणनस्तु य रत्मिः स य वनलोवहतस्य च। षष्ठस्तु ह्यश्वभू रत्मियोवनः सा वह बृहस्पतेः॥३१॥
शनै श्चरों पुनश्चावप रत्मिराप्यायते सुराट् । न क्षीयन्ते यतस्तावन तिान्नक्षत्रता िृता॥३२॥
क्षे त्राण्येतावन वै सूयणमातपत्मन्त गभत्मस्तवभः। क्षे त्रावण तेषामादत्ते सूयो नक्षत्रता ततः॥३३॥
ब्रह्माण् पुराण, पूवण भाग, अध्याय२४-
रवे रत्मि सहस्रों यत् प्राङ्क् मया समु दाहृतम् । तेषाों श्रे ष्ठाः पुनः सि रिय ग्रह-य नयः॥६५॥
सुषुम्ण -हररकेशश्च-ववश्वकमाण तर्ै व च। ववश्वश्रवाः पुनश्चान्यः सोंपद् -वसुरतः परः॥६६॥
अवाण वसुः पुनश्चान्यः स्वराडन्यः प्रकीवत्तण तः। सुषुम्णः सूयण-रत्मिस्तु क्षीण शवशन-मे ियेत्॥६७॥
वतयणगूर्ध्ण प्रचार ऽसौ सुषुम्णः पररकीवत्तण तः। हररकेशः पुरस्ताद्य ऋक्ष-य वनः स कीत्यणते॥६८॥
दवक्षणे ववश्वकमाण तु रत्मिन् वद्धण यते बुिम् । ववश्वश्रवास्तु यः पश्चाच्छु क्र-य वनः िृत बुिैः॥६९॥
सम्पद् वसुस्तु य रत्मिः स य वन-लोवहतस्य तु। षष्ठ-िर्व्ाण वसू रत्मि-योवनस्तु स बृहस्पतेः॥७०॥
शनै श्चरों पुनश्चावप रत्मि-राप्यायते स्वराट् । एवों सूयण प्रभावेण ग्रह-नक्षत्र-तारकाः॥७१॥
वत्तण न्ते वदववताः सवाण ववश्वों चेदों पुन-जण गत्। न क्षीयन्ते यतस्तावन तिा-न्नक्षत्र सोंवज्ञताः॥७२॥
क्षे त्राण्येतावन वै पूवण-मातपत्मन्त गभत्मस्तवभः। तेषाों क्षेत्राण्य-र्ादत्ते सूयो नक्षत्र कारकाः॥७३॥
५. ग त्र प्रभाि-मनु ष्य तर्ा सृवि के ग त्र एक ही जै से हैं -७ स्तर ों तक हैं । मु ण्क उपवनषद् (१/२/४) में अवन की
७ वजह्वा का वणणन है वजससे अवन (पदार्ण या ऊजाण का सघन रूप) प्रकार से बाह्य चीज ों क ग्रहण करता है ।
मु ण्क (२/१/८) में इससे ७ प्राण, ७ ल क, ७ अवचण, ७ सवमिा, ७ ह म, ७ गुहाशय आवद हैं ।
काली कराली च मन जवा च सुल वहता या च सुिूम्रवणाण ।
स्फुवलवङ्गनी ववश्वरुची च दे वी ले लायमाना इवत सिवजह्वाः॥(मु ण्क १/२/४)
सि प्राणाः प्रभवत्मन्त तिात्, सिावचणषः सवमिः सि ह माः।
सि इमे ल का येषु चरत्मन्त प्राणा गुहाशया वनवहताः सि सि॥ (मु ण्क २/१/८)
आकाश में अव्यक्त ववश्व से एक के बाद एक क्रमशः ७ ल क ह ते हैं । इनमें ५ मण्ल अर्ाण त् प्रायः ग ल वपण्
हैं -स्वयम्ू मण्ल (अनन्त आकाश), परमे ष्ठी (सबसे बड़ी ईोंट, आकाशगोंगा), सौर मण्ल, चाि मण्ल (चि
कक्षा का ग ल), भू मण्ल (पृथ्वी ग्रह), वजनक ५ अवन कहा गया है (५ बार घनीकरण)। इनमें सूयण-चि-पृथ्वी
का प्रत्यक्ष अनु भव ह ता है । यह प्रभाव वमला जु ला है , अतः इसक ३ नावचकेत (वचकेत = अलग अलग) या वशव
के ३ ने त्र हैं -
ऋतों वपबन्तौ सुकृतस्य ल के, गुहाों प्रवविौ परमे परािे।
छायातपौ ब्रह्मववद वदत्मन्त, पञ्चानय ये च वत्रणावचकेताः॥ (कि पवनषद् १/३/१)
इनमें ७ ल क हैं -सत्य, तपः (दृश्य जगत्), जनः (आकाशगोंगा), महः (ब्रह्माण् की सपाण कार भु जा में सूयण केत्मित
ग ल, म टाई बराबर व्यास), स्वः (सौर मण्ल), भु वः (ग्रह कक्षा), भू (पृथ्वी)। इनके तत्त्व ों के अनु सार अवन के ७
रूप या वववत्तण हैं -
१. ब्रह्मावन (स्वयम्ू -अवनवव ब्रह्मा-शतपर् ब्राह्मण ३/२/२/७, षड् ववोंश १/१)
२. दे वावन (सौर)-तद् वा एनों एतद अग्रे दे वानाों अजनयत, तिाद् अवनः (शतपर् ब्राह्मण् २/२/४/२)
३. अन्नाद अवन-इयों (पृवर्वी) वा अन्नादी (कषीतवक ब्राह्मण २७/५)
४. सम्वत्सरावन-सम्वत्सर वै यज्ञः प्रजापवतः (शतपर् ब्राह्मण १/२/५/१२) सम्वत्सरः (सौर मण्ल के क्षे त्र) वै दे वानाों
जन्म (शतपर् ब्राह्मण ८/७/३/२)
५. कुमारावन-तावन इमावन भू तावन च, भू तानाों च पवतः, सम्वत्सरे उषवस रे त असञ्चत्। सम्वत्सरे कुमार अजायत।
स अर दीत्, तिात् रुद्रः। (शतपर् ब्राह्मण ६/१/३/८-१०)
६. वचत्रावनः (ववववि रूप)-अवनवव रुद्रः, आप वै सवणः, ओषिय वै पशु पवतः, वायुवाण उग्रः, ववद् युत् वा अशवनः तावन
एतावन अिौ अवन रूपावण। कुमार नवमः। --- स अयों कुमार रूपावन अनु प्राववशत्। तस्य वचतस्य (वचवत, रूप)
नाम कर वत। वचत्र नामानों कर वत...सवाण वणवह वचत्रावण अवनः। (शतपर् ब्राह्मण ६/१/३) वचत्रावण साकों वदवव
र चनावन (अर्वण १९/७/१) वचत्रों दे वानाों उद् अगाद् अनीकों (ऋक् १/११५/१, अर्वण १३/२/३५, वाजसने वय ७/४२)
७. पाशु कावनः-जीव सृवि-स य अयों कुमार रूपावण अनु प्रववि आसीत्, तों अिै च्छत।... स एतान् पञ्च पशू न्
अपश्यत्-पुरुषों , अश्वों , गाों , अववों अजम् । यद् अपश्यत्, तिात् एते पशवः। .. इमे वा अवनः (शतपर् ब्राह्मण
६/१/४/१-४)॥
इसी प्रकार मनु ष्य का भी गुण ७ पीढ़ी तक चलता है । इनके ववन्दु ओों क सह कहा है , इनका सम्बन्ध सूत्र तन्तु
तर्ा इनका रूपान्तर या वववत्तण सूनु (सन्तान) है । कुल ८४ ववन्दु कहे गये हैं वजनमें २८ गभण काल में १० बार चि
की २८ नक्षत्र ों में गवत के अनु सार हैं , अर्ाण त् उस समय की खग लीय त्मथर्वत का प्रभाव। ५६ मनु ष्य के हैं -वजनमें
कु
ुु

५६
उ के ववभाजन-२८, १४, ७, ४, २, १ (मूल क वमला कर ७ स्तर)
स के ववभाजन-२३, १२, ६, ३, २, १।
४६
क े
वपण् से सूक्ष्म जल जै सा है वजसे उदक कहते हैं , यह अगली ७ पीवढ़य ों तक प्रभावी रहता है । १४ पीढ़ी तक
ुे
उदक् प्रभाव ववश्व के १४ भू त सगण के अनु सार हैं । वपतर तपण ण में वपण् और उदक तक ही तपणण करते हैं । कुल
परम्परा
अ नि ह ने से वपण् दक वक्रया बन्द ह जाती है -पतत्मन्त वपतर ह्येषाों , लु ि वपण् दक वक्रयाः (गीता १/४२)।
वपण्
प में भी मूल से ३ पूवण तक केवल वपण् तर्ा उससे पूवण के ३ ले प (वपण् + जल) हैं ।
इससे
ने आगे ७ पीढ़ी तक ऋवष प्रभाव रहता है । ग त्र कारक ऋवष अवङ्गरा (अङ्गार = वनकलना) के वववत्तण हैं , ज
ुे प्रकार के हैं -ये वत्रषिाः पररयत्मन्त ववश्वाः (अर्वण १/१/१),
२१

पू
ुू
वण
ु्

सिास्यासन् पररियः, वत्रस्सि सवमिः कृताः (पुरुष सूक्त, १५)
एकववोंशौ ते अन ऊरू (कािक सोंवहता ३९/२, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १६/३३/५).,



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ववयवव॥

वव

ववव

६.
ववग्रह ों में वपता पुत्र या पु रुष स्त्री-सौर मण्ल के ग्रह ों की उत्पवत्त सूयण (यः सूयवत स सूयणः) से हुयी है । अतः सूयण
व है । मनु ष्य तर्ा अन्य जीव ों के जन्म का थर्ान पृथ्वी माता है , जै से माता के गभण में जन्म ह ता है ।
वपता

द्यौष्ट्
य वा वपता पृवर्वी माता जरामृ त्युों कृणुताों सोंववदानौ। (अर्वण २/२८/२)
आकाश
वव

म के ३ िाम में वजतने सीमाबद्ध (पृर्ु) वपण् हैं वे पृथ्वी (भू ) हैं , उनके चार ों तरफ फैला आकाश द्यौ (स्वः)
हैं । बीच का अन्तररक्ष भु वः ल क है । भू -स्वः के ३ ज ड़े ३ माता-वपता हैं । सूयण चि से प्रकावशत भाग क पृथ्वी
वव
कहा है । द न ों से प्रकावशत पृथ्वी ग्रह प्रर्म पृथ्वी है। सूयण प्रकाश का क्षे त्र सौरमण्ल दू सरी पृथ्वी है वजसमें ग्रह

वव
कक्षाओों से बने क्षे त्र ों क भी पृथ्वी के द्वीप ों जै सा नाम वदया गया है । सूयण प्रकाश की अत्मन्तम सीमा ब्रह्माण् सूयों

का समू ह है , वह तीसरी पृथ्वी है वजसके केिीय घूमते चक्र क पृथ्वी जै सा (आकाश) गङ्गा कहते हैं । इन सभी
वव

पृथ्वी की तुलना में उनका आकाश उतना ही बड़ा है वजतना मनु ष्य की तुलना में पृथ्वी ग्रह। अर्ाण त्, मनु ष्य, पृथ्वी,

वव

सौर मण्ल, ब्रह्माण्, पूणण ववश्व क्रमशः १-१ क वट गुणा बड़े हैं । क वट = सीमा, सभी के वलये ववश्व की सीमा १००



लाख गुणा है अतः १०० लाख = क वट। १ क वट = २ घात २४, अतः गायत्री छन्द क ल क ों की माप कहते हैं ।
वव

या ते िामावन परमावण यावमा या मध्यमा ववश्वकमण न्नुतेमा । (ऋग्वे द १०/८१/४)
वतस्र
व मातॄस्त्रीन् वपतॄन् वबभ्रदे क ऊर्ध्ण तथर्ौ ने मवग्लापयत्मन्त ।
वव
मन्त्यन्ते
उ वदव अमु ष्य पृष्ठे ववश्ववमदों वाचमववश्ववमिाम् ॥ (ऋग्वे द १/१६४/१०)
वतस्र
वव
वव
य भू म ीिाण रयन् त्रीरुत द् यून्त्ीवण व्रता ववदर्े अन्तरे षाम् ।
ऋते
वव नावदत्या मवह व मवहत्वों तदयणमन् वरुण वमत्र चारु ॥ (ऋग्वे द २/२७/८)
वव
रवव चिमस याण वन्मयूखैरवभास्यते । स समु द्र सररच्छै ला पृवर्वी तावती िृता ॥



यावत्प्रमाणा पृवर्वी ववस्तार पररमण्लात् ।

नभस्तावत्प्रमाणों
ण वै व्यास मण्लत वद्वज ॥ (ववष्णु पुराण २/७/३-४)

गायत्र
ववव वै पुरुषः (ऐतरे य व्राह्मण ४/३)
वव
या
वव वै सा गायत्र्यासीवदयों वै सा पृवर्वी (शतपर् ब्राह्मण १/४/१/३४)
वव
वव
गायत्र्या वै दे वा इमान् ल कान् व्याप्नुवन्। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १६/१४/४)


मनु ष्य के गात्र का वनमाण ण गायत्री (२४) वषण में ह ता है । उससे २ घात २४ गुणा पृथ्वी गायत्री है । इसी क्रम से क वट

गुणा सौर मण्ल साववत्री, तर्ा ब्रह्माण् सरस्वती है , ज गायत्री के अगले रूप हैं ।
वव
वव
वव मनु ष्य के वलये पृथ्वी माता, सूयण वपता, ब्रह्माण् वपतामह तर्ा स्वयम्ू मण्ल प्रवपतामह हुआ।
अतः
वव

ववष्य २४ (गायत्री) वषण तक वशक्षा ग्रहण करता है , उसके बाद उत्मष्णक् (२८) वषण तक उष्णीश (पगड़ी) रखता या
मनु
वव
रपररवार
वव का भार वहन करता है । उसके बाद जगती (४८) वषण तक जगत् कायों में लग कर श्री, यश प्राि करता

व (ऐतरे य ब्राह्मण १/५)। मनुष्य जब पररवार का दावयत्व छ ड़ दे ता है , तब पुत्र वहन करता है । इसी प्रकार सौर
है

मण्ल में वकसी ग्रह की वक्रया सीमा पर ज ग्रह है वह उसका पुत्र है । भागवत पुराण, स्कन्ध ५ में ने पचून तक

वव
वव
की ग्रह कक्षा क १०० क वट य जन व्यास (पृथ्वी व्यास = १००० य जन) की चक्राकार पृथ्वी कहा गया है । पर सूयण
वव

या
व ग्रह ों का प्रभाव सूयण से उसके १००० व्यास तक ही अनु भव ह ता है । सूयण = अक्ष, िुरी या चक्षु । उससे १०००
वव

व्यास दू री तक का क्षे त्र सहस्राक्ष हुआ। इसकी सीमा पर शवन है अतः वह सूयण का पुत्र है । शवन तक के ग्रह ों की
वव
त पृथ्वी गवत पर प्रभाव की गणना की जाती है , फवलत ज्य वतष में भी वहीों तक के ग्रह कहे जाते हैं ।
ही

सू
वव यण क्ए वनकट के मों गल तक के ग्रह ि स वपण् हैं । बृहस्पवत तर्ा अन्य बाहरी ग्रह गैसीय हैं । ि स ग्रह ों का क्षे त्र
दवि
वव
त समु द्र कहा है । इसमें सबसे बड़ी पृथ्वी है । ि स ग्रह ों की सीमा पर अत्मन्तम ग्रह पृथ्वी का पुत्र मों गल हुआ

वजसे
वव भौम, कुज (कु = पृथ्वी) कहते हैं ।

ववसवव सवव॥ (ऋवव १०/१३०/१)
वव

वव
वव
ववतवव॥ (ऋवव १०/१३०/२)
वव

पृथ्वी की कक्षा में चि का एक ही सतह दीखता है क्य वों क वजतने समय (२७.३ वदन) में यह पृथ्वी की पररक्रमा
करता है , उतने ही समय में अपने अक्ष की पररक्रमा करता है । इसी प्रकार बुि वजतने समय (८८ वदन) में सूयण की
पररक्रमा करता है , उसके २/३ समय (५८.७ वदन) में अपने अक्ष की पररक्रमा करता है । यह चि जै सा तर्ा
उससे दू र है अतः चि का पुत्र हुआ। एक अनु मान है वक पहले यह भी पृथ्वी की कक्षा में चि के बाद र्ा। चि
आकषण ण के कारण समु द्र जल का कुछ भाग उसकी वदशा में उि जाता है तर्ा पृथ्वी पर ब्रेक का काम करता
है । पृथ्वी का अक्ष भ्रमण प्रवत वषण २ माइक्र सेकण् िीमा ह जाता है तर्ा चि ३ सेण्टीमीटर दू र हट जाता है ।
बुि बाहरी कक्षा में र्ा अतः चि की तरह इसका अक्ष भ्रमण पररक्रमा के अनु पात में र्ा। दू र हटते हटते यह
पृथ्वी कक्षा से वनकल गया और अभी सूयण कक्षा में है । यह प्रायः २ अरब वषण पहले हुआ जब से आज जै सी ग्रह
कक्षा हुई और उसे सृवि सम्वत् कहते हैं । चि कक्षा की सीमा पर रहने या उसके जै सा अक्ष भ्रमण करने वाला
दू र का ग्रह ह ने से चि का पु त्र बुि है ।
सूयण वकरण ों का प्रवाह सौर वायु है वजसे यजु वेद आरम् में ईषा कहा गया है । पुराण ों के अनु सार सूयण का
ईषादण् १८००० य जन (पररवि) है , अर्ाण त् वत्रज्या ३००० य जन या यूरेनस कक्षा तक।
इषे त्वा ऊजे त्वा वायवथर्ः (वाज. यजु १/१)
य जनानाों सहस्रावण भास्करस्य रर् नव। ईषादण्स्तर्ै वास्य वद्वगुण मु वनसत्तम॥ (ववष्णु पुराण (२/८/२) ववष्णु
पुराण (१/१०/११)-क्रत श्च सन्तवतभाण याण वालत्मखल्यानसूयत।
षविपुत्रसहस्रावण मुनीनामू र्ध्णरेतसाम् । अोंगुष्ठपवणमात्राणाों ज्वलद् भास्करतेजसाम् ।
भागवत पुराण (५/२१/१७)-तर्ा बालत्मखल्यानाों ऋषय ऽङ्क्गुष्ठपवणमात्राः षवि सहस्रावण पुरतः सूयण सूक्त वाकाय
वनयुक्ताः सोंस्तुवत्मन्त।
सूयण वसद्धान्त (१२)- भवेद् भकक्षा वतग्ाों श भ्रण मणों षवितावडतम् । सवोपररिाद् भ्रमवत य जनैस्तैभणमण्लम् ॥८०॥
सौर वायु या ग्रहकक्षा रूप पृवर्वी पर ही क्रतु (यज्ञ) ह सकता है । उसकी सीमा का क्षे त्र क्रतु की सन्तवत है
वजसमें ६०,००० बालत्मखल्य अङ्क्गुष्ठ आकार के हैं । पृथ्वी आकाश के वलये मापदण् है , इसे ९६ अोंगुल का पुरुष
मानें त अोंगुष्ठ या १ अोंगुल = १२८००/९६ = १३५ वकल मीटर। इतने व्यास के ६०००० बालत्मखल्य हैं । सूयणवसद्धान्त
में इसे नक्षत्र कक्षा कहा है ज सूयण तुलना में ६० गुणा दू र है (६० AU)। २००८ में पहली बार पता चला वक ४५-६५
AU दू री पर ७०,००० छ टे ग्रह हैं वजनका व्यास १०० वकल मीटर से अविक है । उसके बाद प्लूट क ग्रह सूची से
बाहर वकया।
आकाश में ज वषाण करता है वह वृषा या पुरुष है । ग्रहण करने वाला युषा (युक्त ह ना) या स्त्री है । सूयण तेज का
वववकरण करता है , अतः स्पि रूप से पुरुष है । चि वजतना तेज सूयण से ले ता है उससे बहुत कम दे ता है , अतः
स्त्री है । बृहस्पवत एक छ टा तारा जै सा है और वजतना तेज सूयण से वमलता है , उससे अविक दे ता है , अतः पुरुष
ग्रह है । बुि और शवन अवत वनकट या अवत दू र रहने के कारण इनके ग्रहण-वववकरण का अन्तर हमारे वलये बहुत
कम है , ये नपुोंसक हुए। मों गल सूयण और बृहस्पवत द न ों का तेज दे ता है , अतः पुरुष ग्रह है ।
य षा वा ऽइदों वाग् यदे नों न युववत (शतपर् ब्राह्मण ३/२/१/२२)
य षा वै वेवदः वृषा अवनः (शतपर्ब्राह्मण १/२/५/१५)
स एष (आवदत्यः) सिरत्मिः वृषभस्तु ववष्मान् (ऋक् २/१२/१२)-जै वमनीय उपवनषद् (१/२८/२)
तद् यत् कम्पायमान रे त वषण वत, तिाद् वृषा कवपः (ग पर् ब्राह्मण, उत्तर ६/१२)

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